ग्राम तथा जनजातीय बन्धुओं का सशक्तिकरण
विद्यालय चलाने वाला आर्चाय विभिन्न प्रशिक्षणों के माध्यम से अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध बनता है।
ग्राम तथा जनजातीय बन्धुओं का सशक्तिकरण
स्वामी विवेकानन्द जी ने कहा था कि ‘‘ बनवासी, गिरिजन, झुग्गी-झोपड़ियों में वास करने वाले बाधंवों का जब तक उद्धार नहीं होगा, अपनी मातृभूमि का जागरण कभी संभव नहीं होगा। अपनी समस्त शक्तियाँ जुटा कर उनके अज्ञान का पर्दा हटा दो। चमके हुए सूर्य की भांति मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि वही ब्रह्म शक्ति जो हमारे अंदर विद्यमान है वह उनके अन्दर भी है। अन्तर केवल प्रकटीकरण की मात्रा का है। राष्ट्रीय रक्त का संपूर्ण शरीर के अंग- प्रत्यंग में संचार हुए बिना देश का उत्थान कभी संभव न हो सकेगा। ’’
भारत की नींव को सुदृढ़ करने तथा देश की शिक्षा तथा संस्कृति के उत्थान के लिये बन-बन्धु परिषद की एकल विद्यालय योजना स्वामी विवेकानन्द के आह्वान को क्रियान्वयन करने का एक सार्थक प्रयास है। यह राष्ट्रीय गोष्ठी ग्रामीण तथा जनजातीय बन्धुओं को बलशाली बनाने के अनके आयामों पर विचार तथा मंथन करने के लिये आयोजित की गई है। आयोजकों का हार्दिक अभिनन्दन।
प्रारम्भ में ही मैं ‘‘ बल तथा शक्ति ’’ इन दो शब्दों का अन्तर करना आवश्यक समझता हूँ।
हल की मुठियाँ पकड़े, किसानों, उपेक्षित क्षेत्रों के बनवासियों, अनन्त विपदाओं को सहन करने वालों को सूचना का अधिकार, उनके रोज़गार तथा संरक्षण के लिये कानून बनाकर उनको बलशाली बनाना एक बात है। उनके मन की शुद्धता तथा आत्मिक ऊर्जा के प्रकटीकरण से उनको सशक्त बनाना दूसरी बात हैं। स्वामी रामतीर्थ ने कहा है ^^ My strength is equal to the strength of ten because my heart is pure” आशा है आप इन दोनों शब्दों का अर्थ, भाव तथा उनके आधार पर जीवन खड़ा करने का प्रारूप तैयार करेंगे।
जिन क्षेत्रों की आप चर्चा करने के उत्सुक हैं, आओ। ज़रा उनकी वास्तिवक स्थिति जान लें। प्राथमिक शिक्षा की दशा कितनी गड़बड़ है। देखिये, 90,000 विद्यालयों में श्यामपट नहीं हैं। हजारों विद्यालय ऐसे है जिनके न भवन है और न ही सीमा दीवार। मूलभूत सुविधायें जैसे, पीने का जल और शौचालय भी ना के बराबर हैं। प्राथमिक विद्यालयों से 31.47 प्रतिशत, छात्र, छात्राएं पढ़ाई पूरी किये बिना ही विद्यालय छोड़ जाते हैं। सामाजिक दृष्टि से पिछड़े, अनुसूचित जन-जाति के बच्चों की अवस्था और भी शोचनीय है। इस भयावह स्थिति से हम सबको मिलकर निपटना और लड़ना है।
सर्वशिक्षा अभियान आत्म प्रवंचना की एक दुःखद कहानी है। अनेक विद्यालयों में दोपहर को 12 बजे से 1 बजे तक उपस्थित इस लिये अधिक होती है क्योंकि बच्चों को मध्याह्न का भोजन इसी समय प्राप्त होता है। उनमें पढ़ने की प्ररेणा नहीं जागी, भोजन पा कर विद्यालयों से भाग जाने का क्रम अवश्य प्रारम्भ हुआ है। अतः विद्यालयों से त्यक्त-विद्यार्थियों की एक सैना तैयार हो रही है। यह अधिवेशन परिवर्तन का एक संकल्प बने, यह हमारी कामना है।
शिक्षा के संदर्भ में एकल विद्यालय का अभिप्राय ऐसे विद्यालयों से है जो अनौपचारिक रूप से, बनवासी ग्राम के बच्चों की सुविघा के अनुसार प्रतिदिन अपनी विकसित की गई शिक्षा पद्धति के आधार पर संचालित किए जाते हैं। इन विद्यालयों में एक ही शिक्षक की व्यवस्था होती है, जो यथासंभव उसी गांव का होता हैं।
विद्यालय चलाने वाला आर्चाय विभिन्न प्रशिक्षणों के माध्यम से अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध बनता है। स्थान, समय, पाठ्यचर्या तथा गतिविधियों के प्रबन्धन की अनेक कुशलताओं से वह अपने कार्य को पूजा तथा आध्यात्मिक भाव से करने में सक्षम होता हैं। ऐसे ही आचार्यो से योजना सफलता की ओर अग्रसर है।
ग्रामीण तथा जनजातीय समाज को बलशाली, सक्षम तथा सशक्त बनाने के लिये शिक्षा के सप्तरंगी इन्द्रधुनषीय आयाम हैं। यह हैं - साक्षरता, स्वास्थ्य, समरसता, संस्कृति, स्वालम्बन, सदाचार, स्वदेशी भाव।
साक्षरता से अभिप्राय है प्रत्येक बालक में लिखने पढ़ने की दक्षता उत्पन्न करना जिससे वह अपने दैनिक जीवन की आवश्यकताओं को सहजता से पूरा कर सके। अपने विचारों को मौखिक या लिखित रूप मे दूसरे तक पहुँचा सके तथा स्वंय को सामाजिक एवं राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ सके। भाषायी, गणितीय, पर्यावरणीय दक्षताओं का विकास कराना ही साक्षरता प्रदान करने से अभिप्रेरित है। साक्षरता तथा संस्कारों का आपस में अभिन्न सम्बन्ध हैं। कहा गया है साक्षर व्यक्ति यदि संस्कार विहीन है और वह उल्टा हो जाये तो वह राक्षस बन जाता हैं। अन्र्तनिहित शक्तियों को प्रकट करने के लिये संस्कारक्षम वातावरण प्रदान करना एकल विद्यालय शिक्षा का प्रमुख उदेश्य है।
अनुकूलतम स्वास्थ्य के लिए आवश्यक ज्ञान अभिवृत्ति और व्यवहार सम्बन्धी परिवर्तन उत्पन्न करने के सभी प्रयासों को स्वास्थ्य शिक्षा कहते हैं। बाह्य तथा आन्तरिक स्वच्छता एक साधना है। स्वच्छता आन्दोलन नहीं, स्वभाव बनना चाहिये। सब स्वस्थ रहें इसके लिये समाज का प्रबोद्धन आवश्यक है।
व्यक्ति के सामाजिक हित की महत्ता का विकास, अपनत्व, आत्मीयता परस्परानुकुलता तथा परिवार भाव सामाजिक चेतना के प्रेरिक तत्व हैं। समाज के प्रति एकात्म भाव, उसी के कल्याण से प्रेरित होकर प्रत्येक कार्य करना एवं उसी की अनुभुति करना ही सामाजिक चेतना का ही सही स्वरूप है। सामाजिक समरसता तथा क्षेत्र विशेष के लिये श्रमसाध्य जीवन इनके आभूषण हैं।
गौरवमयी इतिहास, सेवाभाव तथा नम्रता इनके जीवन के अंग हैं। सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण करना हमारा प्रथम धर्म है। हमारे एकल विद्यालय सामाजिक चेतना के केन्द्र बनें इसमें ही हमारी योजना की सफलता है। जनजीवन से सम्बधित सभी प्रकार के आचार-विचार, विधिनिषेध, विश्वास, प्रथा, परम्परा, धर्म अनुष्ठान प्रचलित परम्पराएं अक्षुण्ण रहनी चाहियें। शिक्षा के प्रसार का अर्थ लोक संस्कृति को पुष्ठ करना ही है।
अटल बिहारी वाजपेयी तथा दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की ग्राम शाखा से वापिस लौट रहे थे। दीनदयाल जी खेत की मुंडेर से एक कुंऐ में गिर गए। उन्होंने कहा कि ऊपर वालो मैं नीचे गिर गया हूँ। मैं अपने पैरो पर खड़ा होता हूँ आप भी ज़रा नीचे की ओर झुकें। मेरा और आपका हाथ हम दोनो के प्रयास से मैं ऊपर उठ बाहर आ जाऊँगा। यह कथन स्वालम्बन का मूल मंत्र बन गया।
हमें अपने बन्धुओं को यह मूलमंत्र देना है। वह स्वालम्बी बनें। परमुख अपेक्षी नहीं बने। यही जीवन जीने की कला है। एकल शिक्षा योजना का यह क्रियात्मक पाठ है। इसे पढ़े, समझें और करें।
नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा, सामाजिक सांझेदारी, समझदारी तथा जवाबदारी देती हैं। खेलकूद, गीत उत्सव, भजन तथा अन्य अनेक कार्यक्रमों का आयोजन निरन्तर होते रहना चाहिये। सदाचार पर बल ही शक्ति प्रदान करता है। अतः ज्ञान, भावना तथा क्रिया से हम शिक्षा को तीर्थराज प्रयाग बना पायेंगे।
स्वदेश प्रेम तथा स्वदेशी भाव एकल विद्यालय शिक्षा की संकल्पना का महत्वपूर्ण आयाम है। राष्ट्रीय तत्वों ने बनवासी क्षेत्र में राष्ट्रीय जीवन के मार्ग में बाधा उत्पन्न की है। देश की एकता तथा अखण्डता खतरे में है। स्वदेश प्रेम तथा स्वदेशी भावना जागृत करने के लिये विद्यालयों के छात्रों के लिये तथा ग्रामीण अचंलों में अभिभावक के लिये अनेक प्रकल्पों पर कार्य करना उचित है।
जीवन अन्र्तवाद्य यात्रा और तीर्थयात्रा है। कल, कारखानों, हाट बाज़ारों, खेलिहानों, बिना चूं चपड़ किए अत्याचारों को सहन करने वालों, सभी अनपढ, दीनहीन भाई तथा बहिनों को सबल, सहभागी तथा शक्तिसम्पन्न बनाने का बनबन्धु परिषद तथा एकल विद्यालय योजना एक महान यज्ञ है इसमें हम सब मिलकर समिधा डालें। गान की इन पक्तियाँ को गुनगुनाना कर अपनी वाणी को विराम दें और क्रियाशीलता के लिये शक्ति का सचंय कर चल पड़े, वहाँ, जहां अभी भी अन्धेरा है।
अन्य किसी के मुँह की रोटी, हरना अपना काम नहीं,
पर अपने अधिकार गंवा हम कर सकते आराम नहीं,
अपने हित, औरों के हित, मेल मिलाने वाले हम,
मानवता के लिये उषा की, किरण जगाने वाले हम,
शोषित, पीड़ित, दलित जनेा के भाग्य जगाने वाले हम।