आचार्य दिवस
शिक्षा मानव को सजगता तथा सबलता प्रदान करती है तथा इससे उसे जीवन जीने का अच्छा और गुणात्मक आधार मिलता...
आचार्य दिवस के पावन पर्व पर
श्री दीनानाथ बत्रा राष्ट्रीय अध्यक्ष
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का सम्बोधन
दिनांक 5 सितम्बर 2017
मंच को नमन तथा सभाग्रह में उपस्थित आदरणीय बुद्धिधर्मी मेरे आत्मीय भाई और बहिनो ! मैं अपना कथन पांच दशक से भी अधिक पहले स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति ;बाद में रा़ष्ट्रपतिद्ध डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण्न् ने जो कहा था. वहां से प्रारम्भ कर रहा हूँ। शिक्षा का उद्देश्य मात्र बौद्धिक स्वाधीनता नहीं है इसका उद्देश्य हृदय और अन्तश्चेतना की मुक्ति है। बाहर दिखाई देने वाली मलिन बस्तियों की अपेक्षा मानसिक मलिन बस्तियाँ कहीं अधिक खतरनाक है।
यदि हम राष्ट्र के भविश्य को खतरे में नहीं डालना चाहते तो हमें शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी। भौतिक सम्पन्नता का बड़े-बड़े बांधों इत्यादि का कोई अर्थ नहीं हैं यदि हमारे नर-नारी संकीर्ण और क्षुद्र मानसिकता वाले हैं। जब तक हमारे लोगों का हृदय विशाल बुद्धि ओजस्वी और मन परिश्कृत नहीं होगा। तब तक वे उन समस्त सुविधाओं का जो हम उन्हें प्रदान कर रहे हैं उपयोग नहीं कर सकेंगे। बाह्य पर्यावरण में परिवर्तन लाने का क्या लाभ यदि हम मन में परिवर्तन नहीं ला पाते हमें स्वयं में परिवर्तन लाना होगा और यदि हम चाहते हैं कि हम में परिवर्तन हो तो यह प्रक्रिया हमें उन संस्थाओं में प्रारम्भ करनी होगी जो विद्यार्थियों की आवश्यकता की पूर्ति करती है।
प्रतिभाए प्रतिबद्धताए परिणाम
शिक्षा मानव को सजगता तथा सबलता प्रदान करती है तथा इससे उसे जीवन जीने का अच्छा और गुणात्मक आधार मिलता है। प्रभावी शिक्षण विधि बालक की क्षमताओं को प्रकाश में लाती है। उसका विकास कर उसकी रुचियों स्वभाव तथा जीवन मूल्यों को उसके अनुरूप रूपान्तरित कर तथा उसका सर्वांगीण विकास करती है।
शिक्षण विधियों को परिणामकारी बनाने के लिये आचार्य की प्रतिभाए प्रतिबद्धता तथा परिणाम यह त्रिविधि ठोस आधार हैं। आचार्य के लिए निम्नलिखित प्रतिभा अर्जित करना आवश्यक है.
प्रतिभा
आचार्य को शिक्षा कार्य के अवरोधक तत्वों की जानकारी अपेक्षित है। देश के सम्मुख उपस्थित समस्याएं सामाजिक कुरीतियां तथा असन्तुलन परिणाम स्वरूप प्रगति की गति की अवरुद्धता विज्ञान तथा तकनीकी की उन्नति शिक्षा को जीवन प्रदान करते हैं। उनको जानना तथा पहचानना आवश्यक है।
आचार्य को शैक्षिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु बालकों को अनेक रूपए श्रेणियाँ रुचियाँ तथा अभिरुचियाँ इसका गहन अध्ययन करने के पश्चात उनके सर्वांगीण विकास के लिए कार्यक्रमों की रचना की योग्यता अर्जित करनी चाहिए। बच्चों को प्राथमिक शालाओं में प्रवेश दिलाने उनको टिकाए रखने तथा शिक्षित करने के लिए संविधान में उनके लिए की गई वचनबद्वता को भी हृदयंगम करना होगा।
बालकों को जो पाठ्य सामग्री प्रेशित की जाती है उसमें आचार्य को गहरा प्रवेश करने के लिए कुशल तथा कुषाग्र बुद्धि वाला होना बहुत जरूरी है। आचार्य को विषय को जानना पहचानना तथा नवीन ज्ञान को अर्जित करना तथा उसे अपनाना होगा।
पाठ्यक्रम केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। विद्यालय की प्रत्येक गतिविधि ही पाठ्यक्रम का भाग है। अतः व्यापक दृष्टि का विकास करना चाहिए। पाठ क्रियाधारित मनोरंजक होना चाहिये। बालक का सतत् व्यापक मूल्यांकन करने की भी प्रतिभा विकसित करनी होगी।
विद्यालय में अनेक गतिविधियों की योजना समय प्रबन्धन कार्यक्रमों का मूल्यांकन अभिभावक सम्पर्क छात्रों का व्यक्तिगत मार्ग दर्शन समाज से एकरस तथा एकात्म भाव का उदय इन सब क्षमताओं तथा ऊर्जा को शैक्षिक कार्यक्रम का अभेद अंग बनाना होगा।
स्वाध्याय नव प्रयोग शिक्षाविदों से संवाद तथा अच्छे विद्यालयों के दर्शन आदि से प्रतिभा का विकास किया जा सकता है।
प्रतिबद्धता
जो अपने से प्रतिबद्ध नहीं हैं वह किसी से भी प्रतिबद्ध नहीं हो सकता। स्व प्रतिबद्धता आध्यात्मिक प्रक्रिया है। मैं कौन हूँ मुझे कहां जाना है इन सब प्रश्नों का उत्तर उपनिष्दों ने दिया है। मनुष्य का शरीर देवालय तथा कृषि स्थान है फिर आचार्य बनना तो हमारे पूर्व जन्मों के संस्कारों का पुण्य परिणाम है। इस अलौकिक भाव से आत्मबोध करने वाला आचार्य बालक समाज तथा राष्ट्र को बदल सकता है दूसरा नहीं। अतः यह दिव्य दृष्टि प्रतिबद्धता का प्रथम सोपान है।
बालकों के प्रति प्रतिबद्धता ही आचार्य के कार्य का आधार है। बच्चों के प्रति अबाध तथा निरन्तर स्नेह सुख.दुःख में सहभागिता धूप छाया संबंध ही उनको संस्कारित कर सकता है यन्त्रवत् व्यवहार नहीं। अनुपस्थित रहने तथा शुल्क जमा न कर सकने की स्थिति में विद्यालय से नाम काट देना मास्टर जी का यन्त्रवत् कार्य करना है। यह आचार्य की संज्ञा को सार्थक नहीं करता। बालक के प्रति निश्छल तथा निश्काम प्रेम ही शिक्षण कार्य का प्राण है।
अध्यापन कार्य मेरा व्यवसाय नहीं यह मेरी वृत्ति है। मैं पैसे के लिए नहीं पूजा के लिए कार्य करता हूँ। धन के लिए नहीं धर्म के लिए ही मैंने यह कार्य अपनाया है। यही प्रतिबद्वता के शिक्षक के कार्य को जीवन्त बनाती है। एक जीवन एक लक्ष्य यही इस प्रतिबद्धता का नाद है।
अपने विषय से प्रतिबद्ध हुए बिना इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती। पाठ्य सामग्री को पढ़ना समझना तथा आत्मसात कर जाना तथा नवीनतम ज्ञान आत्मसात करना आवश्यक है। नित्य नई जानकारी के साथ यदि कदम मिलाकर नहीं चलते तो पिछुड़ जाएंगे। आज जबकि उच्चतम को स्पर्श करने की दौड़ है हमारा स्थान कहीं भी नहीं होगा। अतः अपने विशय को परिपक्व बनाना इसे यौवन प्रदान करना शिक्षक के जीवन का जीवन है। अतः इसे बनाए रखना होगा।
जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से आचार्य की जीवन की पुस्तक खुले अध्यायों के समान होती है जिसको पढ़कर बालक सीखते हैं। शिक्षा और संस्कार इन दोनों में से किसी एक के विछोह होने पर शिक्षा अपनी सार्थकता समाप्त कर देगी।
शिक्षा का उद्देश्य जीवन मूल्यों का वितरण करना है। मूल्यों से सम्पन्न आचार्य ही मूल्य प्रदाता हो सकता है दूसरा नहीं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है कि एक जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को जला सकता है। अतः जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता ही शिक्षक को आचार्य तथा आचार्य को मूल्यवान बनाएगी।
हम समाज के अंगभूत है। विद्यालय समाज से पृथक नहीं रह सकते। वह समाज में टापू नहीं बनने चाहिए। विद्यालय समाज में जाए और समाज विद्यालय में आए पारस्परिक सहभागिता दोनो के लिए आवश्यक है। आचार्य सामाजिक दृष्टि विहीन है तो वह कृतज्ञ नहीं और जो कृतज्ञ नहीं वह कुछ दे नहीं सकता। अतः समाज के प्रति प्रतिबद्धता आचार्य का प्रथम वरीयता का गुण माना गया है।
परिणाम
कोठारी आयोगानुसार कक्षा में ही भारत के भाग्य का उदय होता है। अतः कक्षा वह स्थान है जहां पठन - पाठन सहपाठ क्रिया - कलाप जिज्ञासा - समाधान आचार्य का व्यवहार यह सब प्रदर्शित होता है। शैक्षिक कुशलताओं के लिए कक्षा प्रयोगशाला है। कक्षा में अपने दायित्व को प्रामाणिकता से निभाने का यह पावन स्थल है। कार्य तथा कर्तव्य अनुपालना का यह प्रथम स्थान है।
केवल कक्षा ही विद्यालय नहीं है। विद्यालय का भवन इसकी स्वच्छता व्यवस्था सज्जा संस्कारक्षम वातावरण रख - रखाव विद्यार्थी आचार्य तथा अभिभावक यह विद्यालय के भौतिक तथा मानवीय संसाधन हैं। वह अपनी क्षमताओं प्रतिबद्वताओं का उपयोग कर्तव्य पालन के लिए प्रयोग में लाते हैं।
सन्त विनोबा भावे कहते हैं घर विद्यालय है और विद्यालय घर हैं। अतः अभिभावक सम्पर्क आचार्य के महत्त्वपूर्ण कार्यों में से एक है। अभिभावक सम्मेलनों का आयोजन तथा व्यक्तिगत मार्गदर्शन उसके कार्य का एक भाग है। इसके निष्पादन से बालक की अनेक समस्याओं का समाधान हो जाता है।
प्रो. राजेन्द्र सिंह रज्जु भैया का कहना है कि हमारा आचार्य विषय का नहीं अपितु समाज का आचार्य है। एक शिक्षाविद् ने कहा है अच्छा विद्यालय खोलिए और जेल बन्द कर दीजिए। भाव यह है कि अच्छा विद्यालय और इसके अच्छे आचार्य समाज परिवर्तन में सहायक होते हैं। सामाजिक कुरीतियों को दूर कर समाज को सुसंस्कारित तथा समुन्नत बनाते है। अतः आचार्य समाज की धुरी है।
प्रतिभाए प्रतिबद्धता तथा परिणाम यह कुशल आचार्य की त्रिवेणी है। आईये हम सब संगम के इस तीर्थ में स्नान कर अपने को पवित्र बनाये