जीवन में सफलता के 9 सोपान

ज्वलन्त संकल्प जीवन बदल देता है।

श्री माँ का कहना है ‘‘जो व्यक्ति लक्ष्यविहीन है, वह सुखविहीन तथा श्री विहीन होता है।’’ लक्ष्य के बिना व्यक्ति का जीवन एक पत्ते के समान है जो वृक्ष से गिरता है और हवा तथा आंधी उसे कूड़ेदान में फैक देती है। डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम कहते है- ‘’ बड़ा स्वप्न लीजिये, छोटा स्वप्न लेना पाप है, बड़ा स्वप्न लेकर इस पर अपनी चित्तवृत्तिं तथा कुशलताओं को केन्द्रित करते आगे बढ़ते जाईयेजब तक आप अपने स्वप्नं को साकार नहीं कर लेते’’

जीवन जीने के लिये है, रहने के लिये नहीं । लौंहार की धौंकनी के समान सांस नहीं लेना है। जीवन वह है जिसमें हलचल हो, उमंग हो, तरंग हो । स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में जीवन वह है ‘‘ जो दूसरो की भलाई के लिये जिया जाए नहीं तो शेष सब सूखी लकड़ी के समान हैं। ’’ अच्छे जीवन के लिये कोई एक आधारभूत जीवन मूल्य को आधार बना कर उसका अनुसरण करें। प्रमाणिकता तथा परिश्रम से जीवन मूल्य के वह पल व्यक्ति के जीवन को मूल्यवान बनाते हैं। एक नहीं अपितु अनेक मूल्य उस व्यक्ति के अनुगामी बन उसके मार्ग को प्रशस्त कर उसे जीवन लक्ष्य की ओर ले जाते हैं

इच्छा, संकल्प, कार्य, विजय पथ के प्रहरी है। इच्छा के पीछे दृढ़ संकल्प खड़ा  कर, कार्य को पूजा मानकर चलने वालों को पीछे सफलता उन दृढ-संकल्पी तथा क्रियाशील व्यक्तियों का अनुसरण करती है। कर्मशील होने का अर्थ है - योजना बनाना तथा प्रत्येक क्षण का उपयोग कर समयबद्ध उपयोग करना। किसी भी बात का विस्तार तथा विकास के लिए अनुभव की जा रही आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये योजना होती है। योजना की सफलता समन्वित तथा समग्रता से किए गये प्रयास का परिणाम है। शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास के समग्र क्रिया-कलाप व्यक्ति को पूर्ण विकसित मानव बनाते हैं और वह जीवन में उच्चतम को स्पर्श करता है।

ज्वलन्त संकल्प जीवन बदल देता है। विपरित परिस्थितियों की लाश पर खड़ा होकर व्यक्ति सफलता की पताका फहराते हुए आगे बढ़ता है। एक कमजोर कृषगात युवक खड़ा भी नहीं हो सकता था। हवा के झोकों से गिरता रहता था। उसका नाम था सैन्डो । एक दिन मस्तिष्क में स्वस्थ तथा बलवान होने की इच्छाशक्ति जागृत हुई  और वह फौलादी इरादे में बदल गई। उसने अपनी दिनचर्या बदल दी। खाने-पीने में संयम प्रारम्भ किया। आहार, विचार तथा व्यवहार में परिवर्तन से उसके जीवन की दिशा बदल गई। नित्य व्यायाम से शरीर इतना गठीला तथा सुधड़ हो गया कि वह एक अच्छा  विजयी पहलवान बन निकला और उसने भारत के प्रसि़द्ध पहलवान चंदगी राम को चित कर दिया। यह दृढ़ संकल्प तथा प्रबल इच्छा शक्ति का कमाल था।

स्वयं से जो प्रतिबद्ध नहीं वह किसी से प्रतिबद्ध नहीं हो सकता। उपनिषद् में कहा गया है कि अपने को जानों तथा पहचानो। अपनी योग्यताओं और प्रतिभाओं पर विश्वास रखो। अपने को पहचानते ही जब हम प्रयास प्रारंभ करते है तब यह बात ध्यान में आती है  कि हम बर्हिगमन यात्रा कर रहे हैं । यह यात्रा हमें भौतिकवादी बनाती है। फूलों की दीपावली, मरकट वर्ण की वनस्थलियाँ, कपोलों के स्पर्श करने वाली सुगन्धित समीर, नदी के तट पर खड़े वृक्ष पर बैठी चिड़ियों के चूं - चू के स्वर, यह सब दृश्य  हमको मोहित करते हैं और हम इसी में मस्त रहते हैं । यह बाह्य रूप है परन्तु जब हम इसकी आन्तरिक स्वरूप का अनुभव करते है तब अन्र्तयात्रा की शुरूआत हो जाती है। बाहर की आंखे मूंद अन्दर की आंखे खोल अन्र्तयात्री बन जब हम तीर्थ यात्रा करते हैं तो हम जीवन के सफल यात्री बन जाते हैं। अन्दर की ऊर्जा से ऊर्जावान होकर हम बाहर आ जिधर भी देखते है तो यह सृष्टि हमें सीयाराम मय दिखाई देती है। यही जीवन का आनन्दमय पड़ाव है।

सफल जीवन वह जीवन है जो यह समझ लेता है, ‘‘ बड़े भाग मनुष्य तन पावा ’’। मानस के उत्तरकांड में पक्षिराज गुरुड़ ने महात्मा काकभूशंडी से प्रश्न पूछा- उनका प्रश्न था-‘‘ सबसे दुलर्भ कवन शरीरा ’’। उत्तर देते महात्मा कहते हैः-

            नर तन मन नहि कवनिऽदेही

            जीव चराचर जावत तेही ’’

            अर्थात मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर और अचर सभी जीवन इस देह को पाने के लिये याचना करते है। शरीर एक रथ है, जिस पर आरूढ़ होकर हम जीवन की यात्रा करते हैं। अतः यह शरीर सृदृढ़, सबल, सन्तुलित तथा अखण्ड मण्डलाकार होना चाहिये। यह शरीर ही हमें सफलता के सोपान पर ले जायेगा। यह शरीर सृष्टि का सरताज कहलाता है। यह जीवित भगवान का मंदिर है । यह मन्दिर स्वच्छ, मोहक तथा आध्यात्मिकता का स्थल है । आध्यात्मिकता के बिना जीवन में कभी सफलता प्राप्त नहीं हो सकती

हमें अपनी आंखों में ज्ञान का काजल लगा कर इन चक्षुओं को पवित्र करना होगा। इससे हमारे दृष्टिकोण में स्वच्छता, समदर्शिता तथा समरसता के भावों का उदय होता है। दृष्टिकोण से दृष्टिपथ पर चलना, बढ़ना तब तक चलते जाना जब तक मंजिल तक नहीं पहुंच जाते हैं । यह चलना, बढ़ना तथा आगे बढ़ना ही अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने से सम्भव हो सकता है।

पवित्र विचार प्रवाह ही जीवन है, विचार प्रवाह का विघटन ही मृत्यु है। सद्विचार ही नैतिकता है। विचार क्रिया में परिवर्तित होते हैं, क्रिया से आदतें बनती है। बार-बार की गई क्रियाओं से हमारा स्वभाव और चरित्र बनता है। चरित्र से व्यक्तित्व विकास होता है। समग्र विकसित व्यक्तित्व से हमारा भाग्य बनता है। हम अपने भाग्य के स्वयं निर्माता है। सफलता प्रकृति का वरदान है।

प्रत्येक शब्द का चित्र होता है, जो हम देखते है, सुनते है, बोलते है और हाथों से काम करते है, इन सब क्रियाओं से संगृहित चित्र मन का स्वरूप धारण करते हैं। यह चित्र नकारात्मक तथा सकारात्मक होते हैं। सकारात्मक विचार मन को शु़द्ध करते हैं। जैसा होगा मन वैसा बनेगा तन

एक मेज पर गिलास आधा जल से भरा है। उसे देख दूसरा कहता है कि गिलास आधा खाली है। गिलास न आधा खाली न आधा भरा है। इस गिलास में वायु भी व्याप्त है अर्थात यह भरा हुआ है। यह सकारात्मक विचार है। सकारात्मक सोच का व्यक्ति कभी भी अभावों की बात नहीं करता। वह सदा सर्वदा प्रत्येक वस्तु को भावों से भरा देखता है।

एक व्यक्ति रोता, दौड़ता जा रहा था। वह इसलिये कि उसके पास जूता नहीं था उसने अचानक रोना बंद किया जब उसने देखा कि सामने आ रहे व्यक्ति के पास तो पैर ही नहीं है। विहीन व्यक्ति के चेहरे पर कोई भी मलाल नहीं वह प्रसन्न वदन अपने काम पर जा रहा था। यह सच्चे अर्थो में सकारात्मकता है।

एक और बन्धु जिस की एक टांग कट गई थी। घर तथा पड़ोस वाले रोने धोने लगे, कैसे चलेगा यह अब जीवन? कटी टांग की ओर देख वह तपाक से बोला ‘‘ श्रीमन्त रोना है तो अलग से जाकर रोओ। हंसना है तो सारा संसार तुम्हारे साथ हंसेगा। आप को यह जानकारी तो होगी पहले मैं दो जूते पालिश करता था। अब मुझे एक जूता ही पालिश करना होगा। इससे मेरा समय बचेगा और मैं इस मूल्यवान समय का सदुपयोग करूंगा ’’  समय पालन और सफलता दोनों की कुंभ एक ही राशी है।

प्रभु प्रार्थना, ईश्वर के चरणों में आत्मनिवेदन है, कृतज्ञता ज्ञापन है। समपर्ण भाव से प्रार्थना कहते हुए यह शब्द सच्चे हृदय से स्वतः ही निसृत होते है। ‘‘ तेरा तुझ को समर्पित क्या लागत है मेरा ’’‘‘ इदं न मम ’’ , मैं व्यक्ति नही, सम्पूर्ण सृष्टि की अभिव्यक्ति हूँ। मैं संकीर्ण नहीं, विराट हूँ। परमात्मा का प्रतिरूप हूँ। मैं प्रभु में हूँ और प्रभु मुझ मैं है। मैं भाग्यवादी नहीं, पुरूषार्थवादी, मानवतावादी, अध्यात्मवादी हूँ। जीवन में सुख आये तो प्रभु की कृपा और दुःख आये तो उसकी इच्छा ’’ हर सफलता परमात्मा का प्रसाद स्वीकार कर  ग्रहण करना चाहिये।

स्वाध्याय, सुसंगत, स्वनिरीक्षण, सदाचार, संवदेनशीलता, यह सब मार्ग प्रभु के सामने आसन पर बैठनें अथवा उपासना कहलाते हैं। सच्चे मन से की गई प्रार्थना से ईश का वरदान प्राप्त कर हमारा जीवन धन्य हो जाता है और सफल होकर जीवन की अन्तिम यात्रा को पूर्ण करते हैं।

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