पर्यावरण संरक्षण एवं संधारणीय विकास हेतु शिक्षा
ऐसे पर्यावरण में बच्चों के सीखने के अनुभव केवल कक्षा तक ही सीमित नहीं रहते अपितु कक्षाओं के बाहर के...
युनेस्कों की डैलर्स समिति की रिपोर्ट में कहा है, किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति एवं विकास के अनुरूप होनी चाहिए। मैनें उसमें एक शब्द जोड़ा है “प्रकृति"। आज भारत की शिक्षा हमारी संस्कृति, प्रकृति एवं प्रगति के अनुरूप है क्या? यह यक्ष प्रश्न है। हमको जैसा देश, समाज, नागरिक चाहिए वैसी शिक्षा होनी चाहिए। किसी भी देश की शिक्षा उस देश की नींव समान होती है।
इस दृष्टि से देश और दुनिया में संधारणीय विकास चाहिए तो हमारी शिक्षा संधारणीय विकास के अनुरूप होनी चाहिए। विश्व की दो सबसे बड़ी समस्या है, 1. आतंकवाद 2. पर्यावरण का संकट। संधारणीय विकास का सम्बन्ध पर्यावरण से है। आज विश्व दोराहे पर खड़ा है। साधारण धारणा यह बनी है कि पर्यावरण संरक्षण का प्रयास करे तो विकास नहीं होता है, विकास की दिशा में अग्रसर होने से पर्यावरण संकट बढ़ रहा है। इन दोनों का समन्वित एवं संतुलित प्रयास सफलतापूर्वक करना ही “संधारणीय विकास" है।
वैश्विक स्तर पर किये गये प्रयास :
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के सतत विकास लक्ष्य-2030 के अंतर्गत कहा गया है कि “शिक्षा के माध्यम से संधारणीय विकास को बढ़ावा देने के लिए आवश्वयक ज्ञान एवं कौशल अर्जित कर लिया जाए।" संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) ने 2005 में “संधारणीय विकास हेतु शिक्षा दशक (डीईएसडी) की शुरूआत की। इसी से हरित शाला (ग्रीनस्कूल) संकल्पना आयी। आधुनिक काल में वर्ष 1992 में यूरोप से इसकी शुरूआत हुई। वर्ष 1992 रियो, पृथ्वी सम्मेलन में इस की आवश्यकता को रेखांकित किया गया था। वर्ष 2002 में जोहानसबर्ग में "संधारणीय विकास हेतु हुई शिखर वर्ता के बाद इसमें गति आई।"
हरित शाला
हरित शाला को हम एक ऐसे स्कूल के रूप में देखते हैं जिसका मार्गदर्शन संधारणीयता के सिद्धांतों द्वारा किया गया हो। यह एक ऐसे पर्यावरण का निर्माण करता है जो स्कूल के भीतर व बाहर के सभी संसाधनों व अवसरों को संधारणीय पर्यावरण के लिए शिक्षकों व बच्चों को समुदाय की सक्रिय सहभागिता द्वारा संवदेनशील बनाता है। यह केवल एक ही समय चलने वाली प्रक्रिया नहीं है अपितु यह विद्यालय व उसके आस-पास के पर्यावरण के सुधार के लिए सभी लाभार्थियों द्वारा लगातार किये जाने वाले सहक्रियाशील प्रयासों की मांग करता है।
ऐसे पर्यावरण में बच्चों के सीखने के अनुभव केवल कक्षा तक ही सीमित नहीं रहते अपितु कक्षाओं के बाहर के कार्यक्षेत्र में भी इनका विस्तार होता है। ये स्थानीय संसाधन बच्चों के लिए हैं और इनका प्रयोग ऐसे अवसरों के रूप में किया जाता है जिससे उन्हें प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त हो सकें। ये अनुभव उन्हें ज्ञान को अर्जित करके प्रयोग करने में, पर्यावरण की प्रक्रियाओं, उनके परस्पर सम्बन्ध एवं प्रवृतियों को बढ़ावा देने तथा बच्चों की पर्यावरण के विषय में समझ बनाने, मूल्य विकसित करने व संवदेनशील बनाने में भी मदद करते हैं। ऐसी शिक्षा समग्र है और बच्चों का संपूर्ण विकास करती है क्योंकि यह विद्यालय के सभी पहलुओं के साथ एकीकृत एवं सम्मिलित है और विद्यालय की चारदीवारी के भीतर व बाहर औपचारिक तथा अनौपचारिक अधिगम को भी शामिल करती है।
भारत में प्रयास
भारत में 1972 में पर्यावरण योजना एवं संकलन हेतु राष्ट्रीय समिति (एनसीईपीसी) का गठन किया गया। वर्ष 1988 में वन नीति बनाई गई।
कोठारी आयोग 1964 एवं नई शिक्षा नीति-1986 में भी पर्यावरण संकट पर चिन्ता व्यक्त की गई। एनसीईआरटी की पाठ्यचार्या 1975, 1988, 2000 एवं 2005 की पाठ्यचर्या में पर्यावरण विषय का विषय का समावेश किया गया।
इसी प्रकार संविधान के अनुच्छेद 51(ए) में प्रकृति, पर्यावरण, जल, जंगल, वन्यजीवन आदि के संरक्षण एवं संवर्धन को मूलभूत नागरिक कर्तव्य बताया गया है। अनुच्छेद 48(क) में पर्यावरण संरक्षण, संवर्धन तथा वन एवं वन्यजीवों के रक्षण को राज्यों के नीति निदेशक तत्वों में स्थान दिया गया है।
18 दिसम्बर 2003 को उच्चतम न्यायालय ने एम.सी. मेहता विरूद्ध भारत सरकार के निर्णय में पर्यावरण विषय को सभी स्तर पर पढ़ाना अनिवार्य किया।
विगत अनेक दशकों से राष्ट्रीय, अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण संरक्षण हेतु विविध प्रकार से विभिन्न स्तरों पर प्रयास किये जा रहे है। यूनेस्को द्वारा घोषित वर्ष 2005 में संधारणीय विकास हेतु शिक्षा दशक भी तीन वर्ष पूर्व पूर्ण हो गया परन्तु पर्यावरण का संकट (ग्लोबल वार्मिंग) बढ़ता ही जा रहा है।
किसी भी समस्या का समाधान चाहिए तो उनके कारण में जाने की आवश्यकता होती है। इस समस्या का प्रमुख कारण है। “भोगवादी जीवन शैली" पश्चिम सहित विश्व की अधिकतर विचारधाराओं में प्रकृति को भोग का साधन माना गया है। भारत के चिन्तन में प्रकृति को माता का स्थान दिया गया है। परन्तु विगत कुछ दशकों से हम भी भारतीय चिन्तन से हटकर गलत राह पर चल पड़े है। महात्मा गांधी ने भी कहा था, "प्रकृति मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति तो कर सकती है परन्तु मनुष्य की महत्वकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकती।"
इस समस्या के समाधान हेतु भारतीय चिन्तन को आधार बनाकर पाठ्यक्रमों की रचना करनी होगी। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने इसी दृष्टि से पर्यावरण का पाठ्यक्रम बनाया है उसमें हर पाठ के शुरू में भारतीय दृष्टि से प्रारंभ किया है। इस हेतु हर पाठ के प्रारंभ में भारतीय शास्त्रों के मंत्र डाले गये है और उनका अर्थ भी समझाया गया है।
1. भारतीय चिन्तन किस हेतु आवश्यक है। देश एवं दुनिया में पर्यावरण का संकट पिछले बहुत कम है या नही है। इस दृष्टि के कारण भारतीय दृष्टि आवश्यक है। लगभग दो सौ वर्षों की विकास की अवधारणा का परिणाम है परन्तु भारतीय प्राचीन शास्त्रों में पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी मंत्र दिये गये है वह शास्त्र तो दो-पांच-दस हजार वर्ष पूर्व लिखे गये है। इसका तात्पर्य यह है कि समस्या खड़ी होने के बाद समाधान नहीं ढूढ़ना, समस्या खड़ी है, न ही इसका विस्तार करना। विश्व के अन्य देशों, विचारधारा में यह बात
2. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्व. नरसिंह राव हर वर्ष होने वाले अर्न्तराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था कि विश्व को इस समस्या का समाधान चाहिए तो आपको हमारे पास आना पड़ेगा। आगे उन्होंने कहा कि हमारा बालक प्रातः जागरण के पश्चात पैर जमीन पर रखने के पूर्व वह हाथ खुले रखकर मंत्र बोलता है:
समुद्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि! नमस्तुभ्य पादस्पर्श क्षमस्व में॥
जिन शैक्षिक संस्थानों में इस पाठ्यक्रम में प्रतिबद्धता से प्रयोग किये गये वहां अद्भूत परिणाम हो रहे है इस पाठ्यक्रम में सभी पाठो के अन्त में गतिविधियाँ दी गई है। शिक्षक ने पाठ पढ़ाया छात्रों ने पाठ पढ़ा बाद में शिक्षकों एवं छात्रों ने व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में इसका क्रियान्वयन कैसे करना है, शिक्षा के माध्यम से इस प्रकार की दृष्टि का विकास करना ही आध्यात्मिक दृष्टि है। यही संधारणीय विकास हेतु शिक्षा की भारतीय दृष्टि भी है।
आज समाज बींमुखी हो गया है अर्थात बाहर देखता है। किसी भी समस्या के समाधान हेतु सरकार या अन्यों की ओर देखता है परन्तु किसी भी समस्या के समाधान हेतु मेरी क्या भूमिका है? वह सोच बहुत कम एक प्रकार से नगण्य लोगों में होती है। इस कारण से व्यक्ति स्वयं से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की समस्या का उचित समाधान प्राप्त नहीं कर पा रहा है।