प्रबन्धन में जीवन मूल्य

प्रबन्धन एक ऐसी विधि है जिसमें संस्थान के सुसंचालन के लिए योजना, सुव्यवस्था प्रेरणा तथा स्वानुशासन,...

मैं अपनी बात आस्ट्रेलिया के टी.वी चैनल में उस दृश्य से कर रहा हूँ जो 1983 में विश्व के सभी धर्मो जिसमें हिन्दू धर्म भी सम्मिलित था दिखाया जा रहा था। एक चिकित्सक पोलियो ग्रस्त बच्चे का उपचार कर रहा था और कह भी रहा था "मेरे लिये यह नन्ना-मुन्ना मरीज नहीं है अपितु इससे अधिक कुछ और भी है। मैं परमात्मा की पूजा कर रहा हूँ – यह एक महान पावन दृष्टिकोण है जो किसी धर्म और दर्शन शास्त्र में सेवा में ईश्वर के दर्शन करता है।"

दर्शन शास्त्र हम सबको यह ज्ञान देता हैं कि प्रत्येक अणु में परमाणु और परमाणु के भी प्रत्येक खण्ड में ईश्वर विद्यमान है।

"ईशा वास्यमिदम् सर्वम् जगत्यांजगत" 

(सम्पूर्ण जगत में ईश्वर का वास है।)

 

इस तथ्य की अनुभूति होने पर मनुष्य की देखने की दृष्टि, दृष्टिकोण तथा दृष्टिपथ सब बदल जाता है। वह प्रत्येक कार्य को पूजा भाव से करता है। स्वामी विवेकानन्द जी ने आत्मानुशासन, सामाजिक दायित्व तथा सामूहिकता पर विशेष बल दिया है। स्वामी जी के कथनानुसार स्वतन्त्रता, उत्तरदायित्व-अधिकार, कर्तव्य-चिन्तन, क्रिया-लक्ष्य, क्रियान्वयन, आन्तरिक साधुता, आर्थिक भव्यता, भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान, परिवर्तन, गति - गीत, ऊष्णता-ऊर्जा, इन युग्ल शब्दों के अर्न्तद्वन्द में से वह मार्ग चुनें जिन में शब्द, अर्थ, भाव तथा जीवन का सामंजस्य हो और इससे मानवता का कल्याण हो।

व्यावसायिक शिक्षा के किसी क्षेत्र में इस अधिष्ठान पर किया गया कार्य, जीवन का मूल्य और कर्ता के लिये मूल्यवान है। वह मूल्यवान व्यक्ति अपने कार्य तथा व्यवहार से साकारात्मक ऊर्जा को विस्तृत करता है और वह केवल अपने व्यवसाय में ही नहीं अपितु समाज तथा देश में भी सन्तुलन लाता है और संस्कृति को भी सुदृढ़ करता है।

 प्रबन्धन –(Management)

प्रबन्धन, निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए भौतिक, मानवीय तथा आर्थिक संसाधनों का समायोजन है। Management is an integration of physical human and financial resource to achieve an end. इस कथन में समायोजन शब्द बड़े महत्व का है। आर्थिक संसाधनों का उपयोग इस ढंग से हो कि भौतिक तथा मानवीय संसाधनों में संतुलन बना रहे। यदि किसी भी कारक का विछोह हुआ तो उद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े से बड़े व्यावसायिक केन्द्र धराशायी हो जाते है"

प्रबन्धन एक कला है। यह मशीन के समान यन्त्रवत् नहीं, यह जीवन्त, मानवीय, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा उत्पादन क्रिया है। (Hoyle E) के कथानुसार Management is a continuous process through which members of an organization seek to coordinate their activities and utilize their resources in order to fulfill the various tasks of the organizations as efficiently as possible “ संस्थान के भिन्न-भिन्न कार्यो को निपुणता से सम्पन्न करने के लिए सभी समवृति से कार्य करने वालों की गतिविधियों तथा संसाधनों के समायोजन की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया को प्रबन्धन कहते हैं।

प्रबन्धन एक ऐसी विधि है जिसमें संस्थान के सुसंचालन के लिए योजना, सुव्यवस्था प्रेरणा तथा स्वानुशासन, एकरसता, एकात्मभाव सबको एक दूसरे के साथ ऐसे समाहित किया जाता है जिससे मानवीय तथा भौतिक तथा आर्थिक संसाधनों का उत्कृष्ट परिणाम (Excellence) प्राप्त करके लक्ष्य प्राप्त हो सकता है।

प्रबन्धन में जीवन मूल्य :- प्रबन्धन में केवल बुद्धि का नहीं अपितु हृदय का भी साथ है और इस सन्तुलन से एक हृदय दूसरे हृदय को स्पर्श करता है और निर्णय न्याय संगत होता है। ऐसी स्थिति किसी भी संस्था को ऊर्ध्वगामी तथा सचेत, जागरूक, मूल्यपरक, संख्यात्मक तथा गुणात्मक दृष्टि से विकासशील बनाती है।

प्रबन्धन में जीवन मूल्यों का उदय, विशाल भवन, भौतिक संसाधन, नियम, उपनियम तथा आर्थिक समपन्नता से नहीं अपितु हृदय की गहराई से ऊर्जा प्राप्त कर अतयात्रा से बार्हिगमन की ओर बढ़ती है। इसे हम अन्दर बाहर का आना-जाना (Inside,Out) कहते हैं। इस गतिशीलता से संस्था, स्वस्थ, समृद्ध, समरस तथा पारदर्शी बनती है और अपने उद्देश्य में सफल होती है।

बरट्रेण्ड रसल (Bertrand Russell) का कथन है Values are not mechanical, whatever may be mechanical, the values of values are values of the hearts. मूल्यों का सृजन यन्त्रवत नहीं होता। इनका मूल स्थान मानव हृदय ही है। जब किसी संस्थान में प्रबन्धक कुर्सी पर बैठक कर किसी कर्मचारी की कार्य-पंजिका की समीक्षा करता है तो वह यन्त्रवत स्थिति में रहता है। परन्तु जब वह मानवीय चेहरा पहन लेता है तो वह स्वयं को कार्य और कार्यकर्ता को गौरवशाली बना देता है।

संस्था, ज्ञान, भावना तथा क्रिया का संगम है। शुद्ध विज्ञान सरस्वती, प्रायोगिक विज्ञान लक्ष्मी, दोनों की पूजा, अर्चना का यह पवित्र स्थल है। यह सुख, सम्वृद्धि, आनन्द तथा संतोष की भावभूमि है।

प्रबन्धन के जापानी मानक नमूने – (Model) में 7 सोपान है – Strategy (रीति-नीति), structure (ढांचा) systems (व्यवस्थाएं) Staff – (कर्मचारी) style (शैली), Skill (कुशलता) Super ordinate goal (उदात्त लक्ष्य)।

इनमें प्रथम तीन यान्त्रिकी (Mechanical) हैं और आगे के तीन मानवीय अवधारणाएँ हैं और सातंवा मूल्य (लक्ष्य) इन दोनों श्रेणियों को बाधंता है और जिसे हम भारतीय सोच में धर्म कहते हैं। संस्थाओं में मनुष्य की दृष्टि, दृष्टिकोण तथा दृष्टिपथ का महत्व है। अनुभूत ज्ञान (wisdom) से मार्ग प्रशस्त होता है। पाश्चात्य तथा भारतीय दृष्टिकोण में अन्तर है और वह यह- अध्यात्मिकता, सामाजिकता तथा एकात्मता भारत में इसका निकट से अविच्छन्न सम्बन्ध है। यह भारत की चेतना है।

पेसकेल ने अपनी पुस्तक में लिखा है East – They were generally more sophiscated than the west in initialization, social and spiritual faces for the organization's benefit and the accepting the responsibilities to their employees that went with such broad influence"पाश्चात्य जगत से भिन्न भारतीय-सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग, वह अपने कर्मचारियों के लिए करते रहे हैं जिसका कार्य पर व्यापक प्रभाव रहा है।

जापान की मातसूहीता (Matsushita) विद्युत कम्पनी

1. जापान की यह प्रथम कम्पनी है जिसने अपने कर्मचारियों के लिए एक गीत निश्चित किया है और एक आचार-संहिता भी तैयार की है।

 2. प्रतिदिन प्रातः 8:00 बजे जापन के कोने-कोने में 87000 सभी कर्मचारी एकत्रित होकर, गीत गाते हैं और आचार संहिता दोहरा कर इस संकल्प का स्मरण करते हैं कि हम एक समाज के अभिन्न अंग है। 

3. 5 मिनट के लिए मौन प्रार्थना उनकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है। 

4. प्रत्येक व्यक्ति के प्रशिक्षण कार्यक्रम पर बल दिया जाता है।

 इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित है 

• दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है कि प्रत्येक व्यक्ति मास में एक बार अपने सहयोगियों से किसी एक विषय पर बातचीत करता है और कहता है "आओ, हम आपने दायित्व का निर्वाह करें। समाज हित की भी चर्चा होती है।

 •विश्व संस्कृति के विकास में योगदान को भी कर्तव्य माना जाता है।

* सात अध्यात्मक मूल

अध्यात्मिकता को जीवन का मूल मानकर कम्पनी के कार्यकर्ता सात मूल्यों पर आचरण करने का संकल्प लेते हैं।

1. राष्ट्र की सेवा का व्रत 

2. प्रामाणिकता। 

3. सहयोग तथा एकात्मभाव 

4. अच्छाई में वृद्धि के लिए संघर्ष ।

 5. शिष्टाचार और नम्रता। 

6. परिस्थितिनुकूलता तथा समरसता। 

7. कृतज्ञता।

"मैं" की अपरिपकवता को "हम" की परिवकवता में रूपान्तरण करने में आध्यात्मिकता सहायक होती है और अहम् से वयम् की यात्रा पूर्णयता को प्राप्त होती है। जापान में इस अवधारणा को (Wa) वा कहते हैं जिससे अभिप्रेत है समूह में एकात्मभाव, मिलजुलकर काम करना, टोली भावना, सृजनात्मक सहयोग। मानवता के सम्बन्धों को सुदृढ़ करना वह अपना धर्म समझते हैं। जापान के लोग समय पालन पर बल देते हैं। उनके देश में घड़िया भी बनती हैं (प्रायः वह अपनी कलाई पर घड़ी नहीं बांधते) फिर भी कार्य समय पर पूर्ण करते हैं। वह घड़ियों का अपने लिए उपयोग न करके, दूसरे देशों में निर्यात के लिए भेज देते हैं। देश को समृद्ध करने का यह भी उनका एक मार्ग हे।

* जापान में कैजिन (Kaizen) का सिद्धान्त

कैजिन का सिद्धान्त है आगे बढ़ते रहना जो तुम कल थे, वह आज नहीं रहोगे और फिर आज नहीं, अब के लिए कदम बढ़ायें ।

* सिद्धान्त 

1. मनुष्य समस्या नहीं है उसके साथ कोई समस्या है उसका निवारण करें।

2. समस्या के समाधानी मनुष्य तैयार करें। 

3. किसी व्यक्ति की आलोचना करना तथा उसे दोष देने से समस्या का समाधान नहीं होता।

4. अपने दायित्व को निभायें। कार्य अपने से प्रारम्भ करें।

5. आत्मावलोकन करते रहें।

जापान का प्रबन्धन, सामाजिकता, सांस्कृतिकता तथा आध्यात्मिकता पर आधारित है।

* भारतीय वाड़गमय साहित्य में प्रबन्ध तथा जीवन मूल्य

प्राचीन काल से हमारे ऋषियों मनीषियों तथा बुद्धिजीवियों ने प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन में प्रबन्धन के लिए मूल्यों की अवधारण की है। प्रारम्भिक अवस्था से बालक के शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक विकास पर बल दिया है। जन्म से मरण तक के लिए 16 संस्कार हैं, चार पुरूषार्थ है - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। तीन ऋण है – मातृ, पितृ तथा ऋषि ऋण। प्रत्येक मनुष्य को इन ऋणों से मुक्त होने का निर्देश है – व्यक्ति, परिवार, समाज , देश, विश्व, जड़-चेतन तथा परमेष्टि यह जीवन की सप्तपदी यात्रा है। प्रत्येक पद के लिए मूल्यों को श्रेणीबद्ध किया गया है। 

* प्रबन्धन स्थल पर शोध कार्य 

श्री आशीष पाण्डे, श्री राजन के गुप्ता तथा श्री ए.पी. अरोडा ने व्यापारिक संस्थानों के वातावरण का ग्राहकों पर जो प्रभाव होता हैं उस पर शोध कार्य किया है जो व्यापार की आचार-संहिता पत्रिका में 2009 में प्रकाशित हुआ था। इस शोध के मुख्य परिणाम इस प्रकार हैं :

1. आर्थिक शक्तियों तथा तकनीकी ज्ञान के विस्फोट से व्यापारिक संस्थाएं, समाज का आधुनिक स्वरूप प्रस्तुत करने में सहायक हो रहे हैं। परिणामस्वरूप व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन, आर्थिक स्थिति, सांस्कृतिक जीवन पर असमान्य प्रभाव पड़ रहा है। 

2. मुख्य रूप से इस शोध कार्य में कर्मचारियों की आध्यात्मिकता का कार्य स्थान तथा कार्य संस्कृति पर क्या प्रभाव होता है, इसे दर्शाने का प्रयास किया गया है। 

3. मानव व्यक्तित्व के पांच तत्व हैं और उन सब का समायोजन निजहिताय से सर्वहिताय तक आगे बढ़ता है। पांच तत्व है- शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा। आत्मिक विकास अंतयात्रा का परिणाम है।

4. आत्मिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का अर्थ एक ही है। इस अर्थ को सार्थक करने के लिए चार बिन्दुओं पर विचार करना होता है:

• जीवन का लक्ष्य

• जीवन मूल्य 

• कार्य संस्कृति पर विश्वास तथा उसके संदर्भ में हमारा दृष्टिकोण

• सामाजिक सम्बन्ध तथा समायोजन।

* Tax (Jung 1978) का कथन है कि आत्मोन्नयन के लिए बौद्विक उपलब्धि तथा नैतिकता ही पर्याप्त नहीं है। इसके लिए आत्म परिष्कार, उदारीकरण आवश्यक है और आध्यात्मिकता ही इसका मूल है।

* Kaslaow (1968-70) मैसलों ने आत्म परिष्कार के लिए जीवन मूल्यों को दैनिक जीवन में आचरण को आवश्यक माना है। आत्मबोध से ही आत्म सम्मान, आत्मनिरीक्षण, आत्म विश्वास, दायित्व बोध, व्यक्तित्व में सुदृढ़ता तथा सर्वागीणता आती है।

* Roberts (2006) का मानना है कि जीवन लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता, कार्य करने की प्रेरणा तथा उदात्तीकरण तथा परिष्कृतिकरण सम्भव है।

* "गीता-- हमें बतलाती है कि मानव जीवन का आदर्श, स्वःधर्मानुकूल तथा सजगता स्वःप्रेरणा से कार्य करना है। ऐसा करने से उस मनुष्य को आत्मसंतोष प्राप्त होता है धर्म से हम अपने जीवन को धारण किए रहते है। इससे सत्यता तथा सजगता की अनुभूति होती है। स्वधर्म तथा लोक संग्रह आध्यात्मिकता के दो सोपान हैं।

गीता में कहा है “योगः कर्मसुकौशलम्" अर्थात कर्मों में कुशलता ही योग है।

* तनाव मुक्त जीवन आज के व्यवस्थापकों पर जैसे निर्णय लेने की दुविधाएं, अनेक प्रकार के तनाव हैं। पक्षपात रहित कार्य करते हुए संस्थान का हित सर्वोपरि रखना यह भी एक चुनौती भरा कार्य है। कभी-कभी तो प्रबन्धक निराश तथा हताश होकर ऐसे पग उठाता है जो प्रबन्धन के मानवीय मूल्यों के विरोध में जाते हैं। श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जो गीता का संदेश दिया है उसमें वे अनेक विषयों की स्पष्टता के साथ प्रबन्धन की भी सुन्दर अनूठी व्याख्या करते हैं। रण क्षेत्र में अर्जुन, हतप्रभ और भावना के वशीभूत होकर कौरवों, से जिनमें उसके गुरू, सगे-संबंधी तथा सहपाठी हैं, लड़ने से मना कर देता है। भगवान श्रीकृष्ण ने निर्णय करने में संतुलित सोच का उपदेश दिया। यह एक संघर्ष था, युद्ध का निर्णय, मानव की भलाई तथा धर्म के संरक्षण में है।

हार्वड विश्वविद्यालय के प्रो. एम. बी. एथरीय ने लिखा है - " अर्जुन की स्थिति उस नेतृत्व तथा प्रबन्धक की है जिसे अनेक अवसरों पर अन्तर्द्वन्द्व की स्थिति का सामना करना पड़ता है। एक ओर धर्म है तो दूसरी ओर वह संघर्ष, जो संकुचित स्वार्थो के लिए प्रारम्भ होते हैं। कई बार प्रबन्धक भी कुरूक्षेत्र तथा धर्मक्षेत्र में खड़ा है ऐसी स्थिति का अनुभव करता है जैसे अर्जुन ने किया था।"

बड़े-बड़े संकायों तथा संस्थानों में श्रीमद् भगवद् गीता के विचारों, संकल्पों एवं सुझाए मार्गो के अनुसरण से प्रबन्धकों तथा कार्यकर्ताओं के व्यवहार और कार्य प्रणाली को यश मिला है। डॉ0 सुबीर चौधरी निदेशक, प्रबन्धन संस्थान, कोलकता का कहना है -" फिर से आधार की ओर मुड़ना होगा। आधुनिक समय में भारतीय प्राचीन मूल्यों की अनुपालना से प्रबन्धन की नवीन शैली विकसित होगी जो जापन तथा अमेरिका की कार्यशैली की तुलना में बहुत अच्छी होगी।'

क्राम्पट ग्रीवज, लारसेन और एक्सेल मुफ्ती ग्रुप, ए.बी.बी यूनिट, बड़ौदा ने प्रबन्ध की दृष्टि से वेदान्त को जीवन में स्थान देने का अनुमोदन किया है। श्री के0से0 श्राफ, एक्सेल के निदेशक ने उपनिषद् में से उतरण देते हुए लिखा है" आदर्श प्रबन्धन कौशल का आधार है - मिलजुल कर आत्मीय भाव से चलना और कार्य करना।" Together we will work, Together we will do great things, But never envy each other."

श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञान को पुनः प्रकाश में लाने को कहा गया है - " Bhagwat Gita works and leads to work because it is about self management,” प्रबन्धक का कार्य, संस्था के प्रबन्ध कार्य को देखना ही नहीं, अपितु वह अच्छा संगठक भी होता है।

  • प्रबन्धक, संचालन समिति का प्रतिनिधि होकर शिक्षण संस्था की गतिविधियों में सक्रिय रहता है, तथा समिति के मध्य सेतु का कार्य भी करता है।
  •  व्यवस्थापक, अधिकारी नहीं, सेवक है। 
  • व्यवस्थापक, सभी कार्यो का दायित्व स्वयं न संभाले, उसे अपने सहयोगियों को टोली के रूप में विकसित करना चाहिए।
  • प्रबन्धक, कुल का प्रमुख है।  वह अग्रज है, मित्र है तथा सबमें से एक है वह केवल एक कदम आगे हैं वह परिवार का मुखिया है।  उसका आर्दश व्यवहार सबको कार्य से जोड़ता है, तोड़ता नहीं। उसें निम्नलिखित बातों की ओर ध्यान देना होता है।

व्यापारिक संस्थानों में आध्यात्मिक वातावरण

ग्राहकों पर इसका प्रभाव

संस्था के आध्यात्मिक वातावरण का प्रभाव कर्मचारियों पर होता है। कार्य संस्कृति में वृद्धि होती है। परिमणामस्वरूप ग्राहकों में आत्मीयता की अनुभूति होती है और वह सदा सन्तुष्ट रहते हैं।

कार्य में तथा कार्य स्थल में आध्यात्मिकता

संस्था का आध्यात्मिक वातावरण

ग्राहकों की सन्तुष्टि

मानव की अन्तर्निहित शक्तियों का प्रगटीकरण, कार्य-स्थल के कार्य, कर्मचारियों का आत्मीयभाव, स्वःसमायोजन, एक दूसरे से समायोजन तथा बाह्य वातावरण से समायोजन, यह सब आध्यात्मिक वातावरण में कार्य करने वाले अधिकारियों तथा कर्मचारियों के जीवन का वैशिष्ट्य उनके आचरण से परिलक्षित होता है। उनका कहना तथा करना एक ही रहता है वह कहते हैं -

1. मेरा व्यवसाय मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है इसे समझने में सहायता करता है? 

2. इस कार्य के करने से मेरा जीवन सार्थक हो रहा है। 

3. कार्य मेरे लिए पूजा हैं। यहां का कार्य मेरे लिए आत्मबोध का स्थल है।

4. कर्मचारी एक दूसरे की पारिवारिक भावना से चिन्ता करते हैं। 

5. समस्या उपस्थित होने पर समाधान के लिए एक दूसरे से संवाद करते हैं। अपने अधिकारियों के पास मार्गदर्शन के लिए निःसंकोच जाते हैं।

6. यहां कार्य करने वाले राष्ट्रीय संसाधनों जैसे बिजली, पानी, कागज आदि का अपव्यय नहीं करते। 

7. सब को प्राकृतिक वातावरण की चिन्ता रहती है।।

8. यहां कर्मचारी समाज, देश एवं मानव मात्र तथा सृष्टि के लिए अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।

 9. सब यहां एकात्मभाव से कार्य करते हैं। 

10. यहां के लोग वह हैं जो वह दिखाई देते हैं। 

11. ज्ञान, भावना तथा कर्म में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। 

12. त्रुटि हो जाने पर कर्मचारी इसे स्वीकार कर लेते हैं और इसे आगे फिर से न करने का

संकल्प लेते हैं। 

13. इसलिए यहां कार्य करना आनन्ददायक होता है।

* श्रीमद्भगवत गीता – प्रबन्धन तथा जीवन मूल्य । 

कर्म-दर्शन के सिद्धान्तों को श्रीमद्भगवत गीता में विस्तार से समझाने का प्रयास किया गया है। विश्व की सभी धार्मिक पुस्तकों में यह केवल एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें कार्य का अन्तराल, कार्य करना और इससे दोहरे फल, बाह्य जगत में समाज कल्याण की अनुभूति तथा अंतर्यात्रा में आत्मिक सुसम्पन्नता की प्राप्ति आदि है। यह वास्तव में योग है। इस योग से कर्म कौशलनिष्पादन होता है।

मानव विकास की सार्थकता तब साकार होती है जब मनुष्य अपने प्रति प्रतिबद्ध हो, व्यक्ति का व्यक्ति, समाज तथा पर्यावरण में समायोजन हो ।

Harmony of man with himself

Harmony of man with man

Haromony of man with society

Harmony of men with environment

कॉरपोरेट जगत् के लिए श्रीमद्भगवद्गीता की प्रासंगिकता

सफलता के शिखर पर पहुँचने की दौड़ गलाकाट स्पर्धा और व्यवसायिक खींचतान से परेशान कॉरपोरेट जगत् को भगवद्गीता से काफी राहत मिल सकती है। हाल ही में ऐसे विश्लेषण हुए हैं जिसमें पता चला है कि गीता के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति के पीछे भागते युवा उद्यमियों में अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति लगाव पैदा किया जा सकता है। जब तक आज के उद्यमी तटस्थ और स्थितप्रज्ञ होकर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नही करेंगे, वे न तो स्वयं सफल होंगे और न ही अपने व्यवसाय को सफलता दिला सकते है। गीता इसी का रास्ता सुझाती है।

  • गीता- उद्योग व आर्थिक जगत एवं सफल जीवन के लिए सबसे प्रभावशाली मार्गदर्शक ग्रंथ है |
  • प्रबन्धन और नतृत्व के बीच स्पष्ट अंतर है। भगवान श्रीकृष्ण का उदाहरण सामने है एक लीडर को भविष्यद्रष्टा होना चाहिए। भविष्य में होने वाले परिवर्तन के अनुरूप स्वयं को तथा अपने अनुयायियों को ढालने की उसमें क्षमता होनी चाहिए।
  • कर्तव्य का अहंकार- यानी यह मैने किया या मैं ही कर सकता हूँ, कॉरपोरेट वातावरण की एकसूत्रता और एक लक्ष्य की ओर बढ़ने के संकल्प को बाधित करता है। 
  • कर्म करना आपके अधिकार में है-उसका फल नहीं। कर्म केवल फल की इच्छा से ही नहीं किया जाना चाहिए । फल तो कर्म का अंतिम चरण है- वह तो मिलेगा ही। 
  • नेतृत्व के गुण का शत्रु है – क्रोध और अनावश्यक बहस या वार्तालाप। गीता की यह अवधारणा आज भी सर्वथा उपयोगी हैं अर्थ जगत को नेतृत्व प्रदान करने वाले, उत्तरदायितव की भावना के साथ अपनी सामाजिक जवाबदेही निभाएँ। ऐसा करते समय उन्हें तत्काल लाभ की कोई कामना नहीं करनी चाहिए। गीता सफलता का कोई मंत्र नहीं बताती बल्कि जीवन के उच्च उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रेरित करती है। 
  • कॉरपोरेट जगत में संदेह या संशय का कोई स्थान नहीं है।

श्री कृष्ण ने कहा – संशयात्मा विनश्यति- हम अपने किसी उद्यम के प्रति पहले से ही संशयग्रस्त रहेंगे तो हम अधूरे मन से काम करेंगे और हमारी सफलता संदिग्ध हो जायेगी। 

  • श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा था कि चुनौतियों से भागना नहीं बल्कि जूझना जरूरी है। और निष्काम भाव तथा अनासक्ति द्वारा ही अंतरात्मा से साक्षात्कार संभव है। यही भाव आर्थिक दुनिया के लीडरों में भी जरूरी है। निष्काम कम्र की शक्ति को परखने और अहंकार से छुटकारा पाने के लिए कॉरपोरेट को कर्ता भाव के अहंकार से मुक्त होने का पाठ गीता पढ़ाती है जो सफल नेतृत्व, लगातार कठिन परिश्रम एवं सब अधीनस्थों को प्रेरित करते हुए, साथ लेकर चलने के उदाहरण की प्रस्तुति द्वारा ही संभव है। 
  • कॉरपोरेट लीडर अपने नैतिक गुणों के बूते पर ही लंबे अरसे तक टॉप पर रह सकता है। कुशल प्रशासन की वास्तविक कुंजी भी गीता में बताई गायी है। वह है स्वप्न दृष्टा एवं स्वप्न को साकार करने वाली टीम के अलग-अलग दृष्टिकोण ।लेकिन समन्वित प्रयास से कार्य करने पर सफलता अवश्य मिलती है।
  •  सच तो यह है कि वही नेतृत्व अपनी ऊचाई तथा प्रमुखता कायम रख सकता है, जिसमें परिवर्तनों से सामंजस्य बिठाने और परिवर्तन से उत्पन्न परिस्थितियों अथवा चुनौतियों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता हो। 
  • दरअसरल श्रीकृष्ण के उपदेश केवल अजुन के लिए नहीं बल्कि समस्त मानव मात्र के लिए हर युग में उपयोगी हैं। गीता के इस सार्वकालिक महत्व की पहचान कर भारतीय ही नहीं विश्व भर में कॉरपोरेट जगत इस अपना रहे हैं। नित नई ऊंचाई छूने को बेताब कॉरपोरेट जगत के कर्ता धर्ता इस प्राचीन ग्रंथ की शरण में जा रहे है

गीता के माध्यम से श्री कृष्ण ने संदेश दिया है कि अन्दर से बुद्धिमान तथा बाहर से शाही नहान अर्जित करो (sagely with in and kingly outside)

इस अन्तिम श्लोक में देश को आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने का यह प्रबन्धन का प्रथम मूल्य है। निरक्षरता का बदनुमा धब्बा मिटे, इसके लिए सरस्वती की आराधना चाहिए। शिक्षा का प्रकाश हो, अज्ञानता का अंधकार दूर हो – 'तमसो मा ज्योतिर्गमय"

इस कार्य के लिए सामाजिकता टोली कार्य, अथक परिश्रम तथा सर्वसम्यकता लाना हमारा लक्ष्य बने अर्थात लक्ष्मी की पूजा चाहिए।

सरस्वती-लक्ष्मी, श्रेय-प्रेय, भौतिकता-आध्यात्मिकता, बाह्य यात्रा तथा अन्तर तीर्थ यात्रा, शुद्ध विज्ञान-क्रिया विज्ञान, अहम-वयम् यह सब साधनाएं आवश्यक हैं। यही शिक्षा है यही इसकी परिभाषा है। यही समग्र विकास का साधन है।

श्री (लक्ष्मी) के पश्चात विजय हमारा दूसरा सोपान है, जो प्रयास करें, प्रकल्प आरम्भ करें, उसे लेकर ज्ञान, भाव तथा क्रिया के संगम की ऊर्जा से ओतप्रोत आगे बढ़ें और विजयी हों।

तीसरा सोपान भूति है। इससे अभिप्रेत है- समाज कल्याण। श्री तथा भूति से सुख, समृद्धि तथा संतोष जीवन में आयेगा। पर हिताय, सर्वान्तासुखाय " जीवन की कामना देश को परम वैभव पर ले जाएगी।

चौथा जीवन मूल्य है निरन्तर न्याय तथा मूल्यवान जीवन। कोई भी राष्ट्र सुखी नहीं रह सकता जहां पक्षपात है, अन्याय है, ऊंच-नीच भेदभाव है। धर्माधारित समरस समाज ही राष्ट्रोत्थान की नींव है। प्रशासन, प्रबन्धन, उत्पादन तथा वितरण, समदर्शी रहना चाहिए। शोषण रहित समाज में सब का पोषण सम्भव है। यह सब सम्भव है हदयों में ईश्वर विभूति की अनुभूति से। यह धर्म है, इसे अध्यात्मिकता भी कहेंगे। इसी से मनुष्य-मनुष्य से बंधता है और सर्वस्पर्शी दृष्टि का विकास होता है। यही चल संसार में अचल नीति है। शुद्ध व्यवहार है, जीवन में मूल्यों का आचरण है।

शिक्षण संस्थाओं में प्रबन्ध, प्रबन्धक, संगठक की त्रिवेणी

• प्रत्येक कार्य को मानव के नाते देखना तथा आंकना चाहिए। यन्त्रवत् कार्य से मानवीय गुण सम्पदा नष्ट हो जाती है। दीनदयाल उपाध्याय जी का कथन है - " शिक्षा संस्थाओं को मैंनेजर अथवा प्रबन्ध समिति की निजी संपत्ति बनने देना उचित नहीं"। प्रबन्धक, निःस्वार्थ तथा आत्मीयभाव से व्यवस्था करता है। वह अपने लिए सीमाएं निश्चित कर कार्य करता है। वह संस्थान के दैनिक कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है। वह संस्थान की संपत्ति पर अधिकार नहीं रखता। यह सम्पत्ति तो समाज की धरोहर है।

• कर्मचारियों के साथ आत्मीय भाव तथा पारिवारिक भावना के साथ कार्य करें जिससे यह अनुभूति हो कि प्रबन्धक सहयोगी हैं।

• संस्थान को सामाजिक सुरक्षा स्थल के रूप में विकसित करने का प्रयास करना चाहिए।

• वेतनक्रम का अन्तर बहुत अधिक रहना उचित नहीं रहता। कार्य प्रमुख तथा कार्यकर्ता दोनों के बीच इस प्रकार के फासले से एक दूसरे से दूरी बढ़ती है। संगठन मे दूरियाँ दूर होनी चाहिए। । यदि कोई भी व्यक्ति कार्य स्थल पर उदास दिखाई देता है तो उसके अधिकारी को यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि कहीं उसका स्वास्थ्य तो खराब नहीं? इस प्रकार की देखभाल संस्था के वातावरण को सुदृढ़ करती है।

• संगठक का व्यक्तित्व चुम्बकीय हैं। वह प्रसन्नचित रहता है। उसके साथ कार्य करने में सबकों आनन्द आता है।  

• संगठक उपदेश नहीं अपने जीवन से प्राणपन से कार्य करने का संदेश देता है।

• लक्ष्य प्राप्ति के लिए सबकी रूचि के अनुसार कार्य देना और संस्था के लिए उसकी योग्यता का अधिकतम लाभ प्राप्त करने में संगठक की सफलता है। संस्थान को ऊँचाईयों तक ले जाने के लिए सबका योगदान अपेक्षित हैं। कोई बड़ा और छोटा नहीं। लंका पर सेतु बनाने के लिए गिलहरी द्वारा किया गया कार्य उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि हनुमान जी का। सभी कार्यकर्ताओं को इस स्थिति तक पहुँचाने के लिए संगठक, मस्तिष्क तथा हृदय से प्रयास करता है। - स्वतन्त्रता कार्यकर्ताओं को कार्य करने और उनके मार्गों के अवरोधों को दूर करना संगठक की कार्य प्रणाली है

• संगठक की सफलता इस बात में है कि अल्पकाल में वह अपने इर्द-गिर्द अच्छे लोगों की टोली का निर्माण कर लेता है और सबकी क्षमताओं का समायेजन, उद्देश्य प्राप्ति के लिए कर लेता है। संगठक के संबंध में यह धारणा बन जाए कि प्रत्येक कर्मचारी यह समझने लगे कि ये मेरे बड़े भाई हैं। मेरे से दूसरों से अधिक स्नेह करते हैं। 

• संस्थान की टोली व्यक्ति विशेष से जुड़ी नहीं अपितु लक्ष्य तथा कार्य से जुड़ी रहनी चाहिए। व्यक्तिनिष्ठ व्यक्ति कभी समाज में संगठन का कार्य नहीं कर सकते। । मन्थन और कार्य, सूक्ष्म दृष्टि और क्रियान्वयन, आन्तरिक दिव्यता और बाह्य आकर्षक व्यक्तित्व, परिश्रम तथा नैतिक ऊर्जा, दृढ़ संकल्प तथा एकात्मता, कार्य की पूजा तथा प्रभुभक्ति, ह्दय से ह्दय का मिलन, जागृति, चेतना तथा मानवीय अवधारणा, यह सब संगठक के गुण तथा जीवन मूल्य हैं।

• संगठक एक ओर कर्मचारियों की सुख सुविधाओं तथा भलाई के कार्यों की योजना बनाता है और दूसरी ओर उनके ज्ञानवर्धन तथा कुशलता के विकास के लिए सतत् व्यापक प्रशिक्षण की व्यवस्था करता रहता है।

* स्वामी रंगानाथ नंदा - प्रबन्धन के सूत्र

हम स्वतन्त्र तो हुए परन्तु देश में सुतन्त्रता नहीं आई। देश में प्रतिभा का अभाव नहीं। विश्व में विज्ञान तथा तकनीकी क्षेत्र में हमारा स्थान तीसरा है। क्या इस विकास से करोड़ो देशवासियों के जीवन में परिवर्तन आया?, क्या निर्धनता दूर हुई? 40 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं, 35 प्रतिशम अनपढ़ है। प्रयोगशालाओं से निकली विज्ञान की उपलब्धियाँ, जन-मन की स्थिति सुधारने में क्यों असफल रहीं। यह विचारणीय विषय है।

थामस हैक्सले का कथन पूर्णतया सत्य है "कि ज्ञान का विस्तार तो हुआ अपितु मानव कष्टों के निवारण में इस ज्ञान-विज्ञान ने कोई सहायता नहीं की। सामाजिक कुरीतियों ने देश की गति तथा प्रगति को अवरूद्ध किया है। भ्रष्टाचार, कर चोरी, नागरिकता का अभाव, भौतिकता की दौड़, अध्यात्मिकता से विमुखता, इन सब कारणों से हम समृद्धिशील सम्पन्न तथा संस्कार युक्त देश बनने में पिछड़ते जा रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द के कथनानुसार "हम केवल रह रहे हैं जी नहीं रहे। We only exist and do not live & They only live who live for others" दूसरों के लिए जीना ही जीना है। मानव की मानवता, जीवन का जीवन मूल्य 'इदम् न मम्” मंत्र में है। प्रबन्धन तथा प्रशासन से जुड़े व्यक्तियों का यह प्रथम दिशा निर्देश मंत्र है।

 अधिकार और कर्तव्य

प्रबन्धन में लगे सभी अधिकारियों, कार्यकर्ताओं और कर्मचारियों के अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति सजग रहना चाहिए। अधिकार और कर्तव्य साथ-साथ चलते हैं। यह तब सम्भव होता है कि जब सब को यह अनुभूति हो कि वे राष्ट्र-निर्माण के पुनीत कार्य में लगे हैं। यह निःस्वार्थ भाव से पूजा का कार्य है। हमारा संविधान, अधिकारों तथा कर्तव्यों दोनों की अनुपालना पर बल देता है। सन्तुलित जीवन अधिकारों तथा कर्तव्यों को समुचित समान स्थान देता है।

नागरिकता, प्रजातन्त्र की रीढ़ की हड्डी है। इससे चरित्र का निर्माण होता हैं। मानव सम्बन्धों में परस्परानुकूलता, समझदारी सामूहिक चेतना सृजनात्मक सहयोग का सृजन होता है।

जीवन मूल्य और शिक्षा

स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में शिक्षा केवल जानकारियों का देर नहीं है जो मस्तिष्क में पड़ा रहकर संडाद पैदा करता है। शिक्षा अनिहित शक्तियों का प्रकाशन है It is emanicipation of perfection that is allready in man. शिक्षा जीवन का समग्र तथा सर्वांगीण विकास है।

शिक्षा और संस्कार एक सिक्के के दो पहलू हैं। संस्कार, संस्कृति से जन्म लेते हैं। जीवन की प्रयोगशाला में हमारे ऋषियों तथा मनीषियों ने जिन सिद्धान्तों तथा मूल्यों का आविष्कर किया है, वह हमारे देश की संस्कृति है। उसे हम चित्ति भी कहते है।

शिक्षा का भारतीयकरण - सांस्कृतिक आधार- इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों की जानकारी तथा तदनुसार जीवन में आचरण से अच्छे नागरिकों और उनमें से अच्छे प्रशासक तथा प्रबन्धकों का जन्म होता है। अतः शिक्षा का उत्थान होगा तो देश का भी उत्थान होगा।

 चार पुरूषार्थ

हिन्दू विचार के अनुसार जीवन मूल्यों का आचरण के आधार हैं चार पुरुषार्थ अर्थात धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। यहां काम से अभिप्रेत है, वह सब इच्छाएँ तथा कामनाएँ। इन्द्रियों के स्तर पर इन इच्छाओं की पूर्ति मानव जीवन के विस्तार के लिए आवश्यक है।

दूसरा पुरूषार्थ है - अर्थ - यह काम की पूर्ति का साधन है।

तीसरा पुरूषार्थ धर्म है - यह मूल्यों का आधार है इसकी परिधि में आर्थिक अनुशासन तथा कर्तव्य पालन आता है।

धर्म, मानव के आन्तरिक विकास का बाह्य दर्शन है। इस माध्यम से व्यक्ति, व्यक्तित्व बनता है। व्यक्ति स्वः केन्द्रित रहता है। व्यक्तित्व जब अपनी प्रतिभा, क्षमता तथा कुशलताओं को समाज को समर्पित कर देता है। इसी से ही अधिकार और कर्तव्य का समन्वय होता है। चौथा पुरूषार्थ है – मोक्ष

व्यक्ति से व्यक्तित्व का विकास अध्यात्मिक यात्रा है। मोक्ष का अर्थ है सब अभावों से शोषण, अन्याय, ऊंच-नीच, भेदभाव, सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति। यहां सब में एकात्मता के दर्शन होते हैं वहीं जीवन की यात्रा पूर्ण होती है। " आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति।"

आर्थिक पुरूषार्थ :-यह धन किसका है?

वैदिक अर्थव्यवस्था में - वेद कहता है “सौ हाथों से कमाओं, हजार हाथों से बांट दो" यह वह संस्कृति जिसको आज के लोग भूल गए हैं। देश का धन, वैभव कुछ लोगों के हाथ में एकत्रित हो जाए तो आर्थिक विषमता के कारण अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ती जायेगी। देश में सामाजिक असंतुलन तथा असंतोष बढ़ेगा।

उपनिषद्कार प्रश्न करता है कऽस्यस्वित् धनम्? यह धन किसका है? उतर दिया गया है कि यह धन तो प्रजापति का है, ईश्वर का है? और हम सब ईश्वर की संन्तान है, इस कारण ईश्वर का धन ईश्वर की स्तुति में बांटकर काम में लाना उचित है।

हमारी संस्कृति कहती है "मागृधः कस्यस्वित धनम् अर्थात किसी के धन का लालच मत कर। जिस धन को तूने स्वयं भी कमाया है, उसका भी लालच मत कर। यह धन बांट देना है, जिनको इसकी आवश्यकता है और जो इसके बिना कष्ट उठा रहे हैं।

वेद स्पष्ट आदेश देता है "त्यक्तेन भुंजीथा", त्यागपूर्वक भोग करो। खूब खाओ, जी भरकर खाओ, परन्तु यह ध्यान रखो कि तुम्हारा इस संसार में खाने-पीने के लिए जन्म नहीं हुआ है। हां, इतना खाओं जिससे तुम जी सको। चरक का परामर्श है- मित भुख, हित भुख, ऋत भुख,- अर्थात थोड़ा खाओ, शरीर के लिए जो हितकर हो और न्यायपूर्वक कमाए धन से जो प्राप्त हो उसे खाओं।

जैसा कि ऊपर कहा गया है, " त्यक्तेन भुंजीथा"- त्याग पूर्वक भोग करो। यह संसार चलायमान है, नाशवान है। इसमें तुम्हे सदा रहना नहीं हैं जितने समय यहां रहना है, प्रभु का स्मरण करो और सभी प्राणियों में ईश्वर का साक्षात्कार करो। किसी का शोषण नहीं, सभी प्राणियों का पोषण हो।

स्वामी विवेकानन्द जी का कथन है "Renunciation and service are the twin ideals of our country.** त्याग और सेवा हमारे देश के दो आदर्श है। इन आदर्शों के पालन से हम ऊपर उठते हैं और हम श्रेष्ठतम (Excellence) को प्राप्त करते है। प्रगति करना, आगे बढ़ना, जीवन का लक्ष्य है – उद्यान ते पुरूषनावयानाम्"।

यह वेद वाक्य है, "मैने तुम्हे ऊपर उठने के लिए बनाया है नीचे गिरने के लिए नहीं"। हम सब लोगों के सुख की कामना करें, सब को निरोगिता मिले, सबका कल्याण हो, किसी को कोई कष्ट न हों।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तुनिरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिद् दुःख भाग भवेत ।।

अथर्ववेद के तीसरे काण्ड के 15 वे सूक्त में कहा गया है :

मैं धन से व्यापार करके जिस धन को बांटने का प्रभुत्व रखता हूँ। उसमें वह भगवान जो सबका पिता, सबका स्वामी और सबको उन्नति के मार्ग पर ले जाता हैं, मेरी रूचि को मेरे उत्साह को लगातार बढ़ाता रहें।

किसी भी प्रबन्धन संस्थान के स्वामी, अधिकारियों तथा कर्मचारियों की यह सोच वेद ने हमें दी है। इस सोच में अध्यात्मिकता, समझदारी, सहभागिता तथा सहास्तित्व की भावना निहित है। संस्था अथवा संस्थान में यह जीवन मूल्य हमारी संस्कृति के प्राण हैं। यह प्राण प्रबन्धन की जीवनदायनी शक्ति है।

 सुख? समृद्धि, आनन्द

सुख, समृद्धि, आनन्द का सम्बन्ध जीवन मूल्यों से है। यदि किसी चिन्तनशील व्यक्ति से पूछा जाए कि जीवन में किन मूल्यों की प्रधानता होती है तो वह आपसे कहेगा-परिवार, मित्र, स्वास्थ्य मूल्यवान हैं। इन सबको वह मूल्यवान क्यों समझता है? क्योंकि इन सबका आपस में सम्बन्ध लेन और देन का है और इस लेन-देन में प्यार ही इसका मूल है।

हम स्वास्थ्य को भी मूल्यवान मानते हैं और हमारे ग्रंथो में यह कहा गया है कि धर्म की साधना का एक मात्र माध्यम शरीर ही है। यदि स्वास्थ्य ठीक रहता है तो हमें शांति मिलती है तथा आनन्द प्राप्त होता हैं और इसके साथ यदि प्रेम और शांति प्राप्त हों तो हम पूर्णतया संतुष्ट रहते हैं और यह प्रसन्नता का सबसे गहरा स्वरूप हैं। भौतिक सुख-समृद्धि इनके सामने हमें हेय प्रतीत होते हैं।

आज की शिक्षा हमें सिखा रही है हमारे पास जीवन में जितने भी भौतिक संसाधन होगें उसके कारण समाज में हमारा उतना ही सम्मान होगा और हमें बलशाली और सामर्थ्यशील माना जाएगा।

भौतिक समृद्धि, साधनों की केवल संख्यात्मक वृद्धि ही होती है, जबकि गुणात्मक विकास से हमें चरम आनन्द की अनुभूति होती है। एक नश्वर है और दूसरा अनश्वर । एक की गणना की जा सकती है और दूसरे का अनुभव किया जा सकता है। एक से आत्म का विस्तार होता है और दूसरे से परिष्कार। एक का हम संग्रह करते हैं और दूसरे का धर्म, "तेन त्यक्तेन भूजिथा' अर्थात त्याग पूर्वक भोग करते हैं और यह वितरण ही प्यार तथा शांति का स्रोत है।

परमपिता परमेश्वर ने हमें सृष्टि का अनुपम और सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया है। व्यक्तिगत तौर पर रूचियाँ, योग्ताएं, प्रतिभाएं भिन्न-2 होते हुए भी हम सबमें कुछ आधारभूत समानता हैं, हम सबमें आत्मा और परमात्मा का वास है। हम सब अपूर्ण अंक मिलकर पूर्ण अंक बनते है। यह सोच-विचार अतुलनीय व्यक्तित्व का सोपान है।

हम अपने सम्बन्ध में सकारात्मक सोचें और सकारात्मक ऊर्जा का सृजन करें। हम पहले से पूर्ण तथा सुन्दर है। हम इसे पहचाने। इसका अनुभव कर सकते हैं और इसका सम्प्रेषण भी कर सकते हैं। सुन्दरता, आन्तरिक जीवन मूल्यों से सुगंधित होती है।

हम बहिर्गामी यात्री हैं, अन्दर के छिपे कोश को न हम जानते हैं और न पहचानते हैं। आज की शिक्षा हमें आर्थिक प्राणी बना रही है।

वास्तव में हमारी वेद-वाणी ने घोषणा की है। "श्रवन्तुः विश्वे अमर पुत्राः" । संसार के लोग सुनो, हम अमृत पुत्र हैं। हम परमात्मा की संतान हैं और आध्यात्मिक पुरूष हैं। इसका बोध किए बिना हम अन्तर्यात्री नहीं बन सकते। वास्तव में हमें बाहर और अन्दर दोनों में जाना है। यत्र श्रेयस, निश्रेयस स धर्मः अर्थात भौतिकवादी तथा अध्यात्म जगत में समृद्धि प्राप्त करना ही हमारा धर्म है और यही जीवन का लक्ष्य भी है।

हम केवल शरीर नहीं हैं। इसमें परमात्मा स्वरूप आत्मा भी है, इसमें परमात्मा भी है। इसका साक्षात्कार किए बिना हमें जीवन में आनन्द प्राप्त नहीं हो सकता। हम अपने को जानें, पहचाने। आत्मबोध से हम सच्चे अर्थ में मनुष्य बनेंगे। यही प्यार और प्रसन्नता के परित्राण का मूल मंत्र है।

* उच्च पदस्थ निगमो के अधिकारियों की सात प्रभावशाली आदतें

(Seven Habits of Highly placed persons in corporate sector - Author- Sean Coveg

1. पहल करो :- जब कुछ करना पड़े तो कई लोग बचते है। कुछ बहाने बनाते हैं कि

करना ना पड़े। पर कुछ लोग होते हैं कि काम करने की पहल करते हैं। वे जब काम करते है तो मुस्कुराते हुए उत्साह से करते हैं।

2. मंजिल सामने  रखो :- इसका अर्थ है मंजिल अच्छी तरह समझकर ही कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। हम कहां जा रहे हैं। अभी कहां है? हमारा हर कदम सही दिशा में व मंजिल प्राप्त करने में लगे।

3. वरीयता के आधार पर कार्य :- अर्थात पहले क्या जरूरी है उसे करना चाहिए। कार्य में

वरीयता (Priorities) होती है। अपने सारे कामों की सूची बनाना। फिर इसमें ज्यादा जरूरी है उसे पहले लिखना, फिर क्रमशः कम जरूरी लिखना। कई लोग काम तो बहत करते हैं पर वे जरूरी काम छोड़ देते हैं।

4. जीतने के विचार :- तुम्हारे अच्छे सुझाव भी लेंगे व अपने भी अच्छे सुझाव भी ध्यान में रखेगें तो सफलता प्राप्त कर लेंगे। कई लोग दूसरों की बात या सुझाव सुनते ही नहीं। यह उचित नहीं है। अच्छी बातें सबसे भी ले लो व अपनी भी अच्छी सोच काम में लो।

5. दूसरो को सुनो व समझो:- कुछ लोग दूसरे की सुनते नहीं। उनकी सुनने (Listening) की आदत नहीं होती। इससे आपसी सम्बन्ध बिगड़ जाते हैं। पहले उनकी बात समझो, तोलो, फिर बोलो।

6. टोली कार्य :-जब दो या ज्यादा लोग आपस में स्नेह व मन से टोली (Team) बनाकर

काम करते हैं तो काम चार गुना अधिक तेजी से हो जाता हैं। ऐसे काम की क्वालिटी भी ज्यादा अच्छी होती है तो एक और एक ग्यारह हो जाते हैं, जब टीम भावना बन जाये। आप लोग ऐसे ही श्रेष्ठ बनो।

7. धार पैनी करो : जैसे जो लकड़ी काटते हैं वे पहले धार पैनी करते हैं फिर कुल्हाड़ी चलाते हैं। इसी तरह आप अपनी बुद्धि, शक्ति व अध्यात्म को खेल. योग, ध्यान एवं स्वाध्याय व मैनेजमेण्ट ट्रेनिंग से बढ़ाओं। पहले स्वयं का व्यक्तित्व विकास करो। फिर जो भी करोगे, अच्छा करोगे।

 उपसंहार :-इन जीवन मूल्यों के आधार पर संस्था का चरमोत्कर्ष होता है

अन्त में गीता के तृतीय अध्याय का यह श्लोक प्रबन्धक तथा संगठक का मार्गदर्शन करे और इसके आधार पर आचरण कर हम जीवन में सफल हों।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।

तुम लोग यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे को उन्न्त करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो।

आध्यात्मिक वातावरण में कार्य करने वाले अधिकारियों तथा कर्मचारियों के जीवन का वैशिष्टय आचरण से परिलक्षित होता हैं उनका कहना तथा करना है कि :

1. मेरा व्यवसाय मेरी सहायता करता है कि मैं समझ सकूँ कि मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?

 2. यह कार्य करने से मेरा जीवन सार्थक हो रहा है।

3. कार्य मेरे लिये पूजा है। यहां का कार्य मेरे लिय आत्मबोध का स्थल है।

4. कर्मचारी एक दूसरे की पारिवारिक भावना से चिन्ता तथा सहायता करते हैं ।

5. समस्या उपस्थित होने पर समाधान के लिए एक दूसरे से संवाद करते हैं। अपने अधिकारियों के पास निःसंकोच मार्गदर्शन के लिए चले जाते हैं।

6. यहां कार्य करने वाले राष्ट्रीय ऊर्जा जैसे बिजली, पानी, कागज आदि का अपव्यय नहीं करते।

7. सबको प्राकृतिक वातावरण की चिन्ता रहती है।

8. यहां कर्मचारी समाज, देश, मानव मात्र तथा सृष्टि के लिए अपने कर्तव्य का पालन करते हैं।

9. यहां कार्य करना आनन्ददायक है।

10. मैं यहा एकात्मक भाव से कार्य करता हूँ।

11.यहां के लोग वह हैं जो दिखाई देते हैं।

12. ज्ञान, भावना तथा कर्म में कोई अन्तर दिखाई नहीं देता।

13.त्रुटि हो जाने पर कर्मचारी इसे स्वीकार कर लते है और फिर इसे आगे न करने का संकल्प लेते हैं।

 

 

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