युवावस्था की शक्ति एवं सामर्थ्य का बोध
युवा अनन्त शक्ति का भण्डार हैए युवक इस ऊर्जा से अपने भाग्य का स्वयं निर्माण कर सकते हैं। यही कारण ह...
युवावस्था की शक्ति एवं सामर्थ्य का बोध
युवा अनन्त शक्ति का भण्डार है, युवक इस ऊर्जा से अपने भाग्य का स्वयं निर्माण कर सकते हैं। यही कारण है परमात्मा ने युवकों को अतुलनीय बल तथा ऊर्जा प्रदान की। दुर्भाग्य यह है कि युवक आज अपनी तरूणाई तथा शक्ति से वैसे ही अनभिज्ञ है जैसे वीर बलशाली हनुमान को अपने सामर्थ्य तथा शक्ति का ज्ञान नहीं रहा था। जब हनुमान जी को उनको अन्तर्निहित शक्तियों का स्मरण कराया गया तो वह एक ही छलांग में समुद्र लांघ गए। हम अभिभावकों शिक्षाविदों राष्ट्रीय कर्णधारों तथा समाज सेवियों को मिलकर युवकों को उनकी कुशलताओं क्षमताओं सबलताओं तथा अन्तर्निहित शक्तियों का परिचय तथा ज्ञान कराना चाहिए।
वे सर्वांगीण विकसित बन देश को समुन्नत समरस तथा संस्कार सम्पन्न बना सकते हैं। सर्वांगीण व्यक्तित्व विकास का अर्थ हैं। शरीर प्राण मन बुद्धि आत्मा का विकास। उपनिषदों में अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमय तथा आनन्दमय कोषों के संवर्धन से युवक के समग्र स्वरूप को निखारने का उल्लेख है।
व्यक्तित्व विकास के लिए शरीर की सबलता प्राणों का सन्तुलन मानसिक सद्विचार बौद्धिक विवेक सत्यान्वेषण तथा आत्मिक सेवा भाव की आवश्यकता है। प्रत्येक कोष को सरंक्षण तथा संवर्धन करना एक साधना है। साधना के मार्ग पर चलने से पूर्व मन की एकाग्रचित्तता तथा संयम की आवश्यकता है। चंचल मन तथा चितवृत्ति निरोध के लिए स्वाध्याय तथा सतसंगति यह अमर फल हैं जिन का सेवन आगे बढ़ने की प्रथम शर्त है।
युवक शब्द उच्चारण के साथ इसमें तरूणाई ऊर्जा सामर्थ्य साहस तथा जोखिम भरे कामों को करने के संकल्प यह सब चित्र एक-एक करके मन मस्तिष्क के पटल पर स्थापित होते हैं। विश्व की महान आशाएँ युवकों पर टिकी रहती हैं। ऐसे युवकों पर जिन के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने कहा है। चाहिएं ऐसे युवक .प्रशस्त ललाट चमकती आंखे सुदृढ़ शरीर आजान बाहूए फौलादी छाती एवं सिंह गर्जना।
ऐसे युवक ही किसी देश की शानबान होते हैं और वे भी देश को महान
सृदृढ़ तथा शक्तिशाली बना सकते है।
नहीं बनाता है स्वर्ण राष्ट्र को।
सशक्त शाश्वत दिव्य महान।।
सच्चरित्र युवक ही करते देश का भव्य उत्थान।
शिक्षा को करना होगा ऐसे युवकों का निर्माण।।
इन पर ही बनेगा भारत काए उच्च भवन विशाल।
गगन चुम्बी विश्ववन्दनीय माता का स्वर्णिम भाल।।
स्वामी रंगानाथनंदा कहते है कि युवक जिसके पास प्रतिभाए योग्यता तथा निपुणताएँ हैं वह केवल व्यक्ति है परन्तु जब वह यह सारी योग्यताओं तथा कुशलताओं को समाज को समर्पित कर देता है तो उसे व्यक्तित्व कहते हैं आज शिक्षण संस्थाओं से व्यक्ति निकल रहे परन्तु हमें चाहिए व्यक्तित्व। चरित्र निर्माण तथा व्यक्तित्व निर्माण के लिये शिक्षण संस्थाओं में जीवन मूल्यों का शिक्षण तथा समाजिक सेवा को अनिवार्य बनाना चाहिए।
शिक्षा बोर्ड तथा अनेक समितियों ने युवकों की शक्तियों को समाज सेवा तथा श्रमनिष्ठा के कार्यो में लगाने की संन्तुतियाँ की हैं। 1950 में केन्द्रीय शिक्षा बोर्ड की परामर्श दात्री समिति ने यह सन्तुति की थी कि विद्यार्थियों तथा अध्यापकों को श्रम के कार्यों से जोड़ा जाए और श्रमनिष्ठा के भावों को पुष्ट किया जाए। श्रम तथा समाजसेवा के शिविरों का आयोजन करना तथा अन्य ऐसी योजनाओं तथा प्रकल्पों को शिक्षा के पाठ्यचर्या में उचित स्थान दिया जाना चाहिए। 1959 में शिक्षा मन्त्रियों के सम्मेलन में समाज सेवा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि सामाजिक सेवा के कार्यो तथा देश की आर्थिक पुर्नरचना के लिए यह योजना महत्वपूर्ण योगदान देगी।
राष्ट्रीय समाज सेवा समिति ने सिफारिश की हायर सैकण्डरी की परीक्षा के पश्चात् विद्यार्थी अनिवार्य रूप से एक वर्ष के लिए सेवा के कार्यों में व्यतीत करें। श्री सैयीन की संन्तुति में इस विषय को स्वप्ररेणा से कार्य करते हुए विद्यार्थियों के लिये बहुआयामी तथा बहुस्पर्शी बनाया जाए। शिक्षा आयोग 1964-66 ने इस विषय को शिक्षा में इसका भाग बनाया जाए। माध्यमिक विद्यालयीन शिक्षा से विश्वविद्यालयीन शिक्षा तक इस पाठ्यचर्या को अभिन्न अंग बनाया जाए। विद्यार्थी एक साथ रहकर सामूहिक जीवन व्यतीत करें। मिल जुलकर समाज सेवा के कार्यों को सम्पन्न करें। इस उपक्रम से शिक्षित अशिक्षित ऊँच नीच नगर तथा ग्राम के बीच की खाई को भी काटा जा सकताहै।
28 अगस्त 1959 को शिक्षामंत्री ने डॉ. सी. डी. देशमुख चैयरमेन विश्वविद्यालयीन अनुदान आयोग की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। समिति ने अपने रिपोर्ट में कहा सेवा का मुख्य उददेश्य शिक्षित युवकों में यह जागृति लानी है कि वह ग्रामों में ग्रामोत्थान के लिए कार्य करना अपना कर्त्तव्य समझें। देश हित के लिए श्रमनिष्ठा व्यक्तित्व विकास का महत्वपूर्ण सोपान है। देश की माटी के स्पर्श से देशभक्ति की भावना जागृत होती है। राष्ट्र सेवा देश के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना ही है। युवावस्था में युवकों के पास अतिऊर्जा होती है। इस ऊर्जा को यदि विधेयक धाराओं में प्रवाहित नहीं किया जाता तो वह शैतान के प्रतिरूप बनेंगे। अतः सभी संस्थाओं में पढ़ाई के साथ-साथ सेवा कार्यो को बढ़ावा देना चाहिए और युवाओं की इस अवधि में देश को गौरवमयी स्थान प्राप्त कराने के लिए उपयोग करना चाहिए। विद्यार्थी काल में तरूणों को अपना जीवन अनुशासित रखने के लिये व्यवस्थित जीवन प्रणाली अपनानी चाहिए।
युवकों के लिये मार्गदर्शन माता-पिता का सम्मान करना उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन है। युवकों को हर महिला को अपनी माँ तथा युवतियों के प्रति मातृत्व व्यवहार करना चाहिये। भोजन करने की आदते सामान्य रहें। सोने की आदतें भी सामान्य हों।वाणी संयम ही वाणी का तप है। इसकी साधना आवश्यक है। मनोरजंन के लिए थोड़ा समय अवश्य निकालें। शरीर के प्रत्येक अंग की स्वच्छता की ओर विशेष ध्यान दें। इन्द्रिय उत्तेजक दृश्य जिह्ना स्वाद तथा दुष्कर्म क्रियाओं से सदा दूर रहें। स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करें। धार्मिक ग्रंथ तथा स्वामी विवेकानन्द जी के साहित्य का सदा सर्वदा अध्ययन करते रहना चाहिए।विकृत विचार युवकों में विकृति लाते है। न के स्थान पर सद्विचारों को मन बुद्धि पर प्रस्थापित करना चाहिये। गप्पे हांकना समय को नष्ट करना है। जो काल को मारता है काल उसे कभी नहीं छोड़ता।बुरी संगत से स्थायी रूप से दूर रहें। सद्संगति जीवन को प्रगति के पथ पर ले जाती है।
प्रार्थना जीवन का शक्तिशाली सम्बल है। प्रार्थना में सिर झुकाना आना चाहिए। गर्दन की अकड़ ढीली करें। अहम् ऐसा करने से रोकता है। अतः अहम् शून्य बनें। दैनिक व्यायाम योगासन स्नान स्वाध्याय दिनचर्या का स्वाभाविक भाग है और यह रहना ही चाहिए। दिन में किसी सामाजिक सेवा की क्रिया में भाग लें । हमारी अतिऊर्जा अच्छी धाराओं में प्रवाहित हो शरीर मन बुद्धि को निर्मल कर इन तीनों को समायोजित करें। ब्रह्मचर्य पालन युवावस्था का अमोध कवच है। इससे हम जीवन की अनेक कमजोरियों पर काबू पा सकते है। अपने शरीर मन तथा बुद्धि की शक्तियों को उच्च आर्दश से जोड़ दें।इनमें से किसी एक का भी विछोह नहीं होना चाहिए।
ज्ञान इच्छा तथा कर्म का संयोग ही धर्म है। ज्ञान के बिना धर्म अन्धा इच्छा के बिना निष्प्राण तथा क्रिया के बिना लूला-लगंड़ा है। जीवन की सप्तपदी यात्रा को धर्म दण्ड का सहारा लेकर पूर्ण करें। ज्ञान भावना क्रिया के संगम पर जीवन तीर्थराज प्रयाग बनता है। प्रतिदिन इसमें स्नान करे।कार्य ही पूजा है। स्वामी विवेकानन्द जी का कथन है कि काम को पूजा भाव तथा अध्यात्मिक भाव से करें।
ज्ञान का दीप जलाए रखूँगा
हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े मै मेहनत करूँगा
मेरा देश महान् हो धनवान हो गुणवान हो
यह प्ररेणा का भाव अमूल्य है
कहीं भी धरती पर उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूँगा जिससे मेरा देश महान् हो।
महामहिम पूर्व राष्ट्रपति डाँ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम ने युवको को आह्वान किया है। प्रत्येक युवक को इसका सदा स्मरण करना चाहिए।