व्यक्तित्व विकास . एक अध्यात्मिक यात्रा

क्त की एक बूंद में पांच लाख रक्तवर्ण तथा पांच हजार श्वेतवर्ण कोशिकाएँ और पांच सौ हजार अनियमित आकार क...

व्यक्तित्व विकास - एक अध्यात्मिक यात्रा

सृष्टि की व्यापकता में मनुष्य समुद्र में एक बूंद है परन्तु विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस बुंद में भी असीम समुद्र सम्मलित है। शरीर की संरचना इसकी बनावट इस के भिन्न-भिन्न अंगों तथा कोशिकाओं का जटिल कार्य चकित कर देता है और चैंकाने वाला है।रक्त की एक बूंद में पांच लाख रक्तवर्ण तथा पांच हजार श्वेतवर्ण कोशिकाएँ और पांच सौ हजार अनियमित आकार के टुकड़े है। यह कितना अद्भुत तथा रहस्यमयी संसार है। स्वामी विवेकानन्द  ने कहा है जमतम पे कपअपदपजल पद मअमतल इवकल मनुष्य के अन्दर सूक्ष्म दिव्यता तथा अलौकिक प्रकाश है यह शरीर देहालय नहीं देवालय है। देवालय के प्रकाश दीप तक पहुँचना यही जीवन का लक्ष्य है। ऋषि वेदव्यास ने कहा है आओं मैं तुम्हे एक रहस्य की बात बताता हूँ कि मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। 

 मनुष्य की श्रेष्ठता का रहस्य 

देवताओं के पास वरदान देने की शक्ति थी। देवतागण मनुष्य की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वह सब दे देते थे जिसकी वह मांग करता था। इन मांगों से तंग आकर देवताओं ने एकान्त में बैठकर मन्त्रणा की इस गुप्त वरदान के सामथ्र्य को किसी ऐसे स्थान पर रख देना उचित होगा जहां मनुष्य पहुँच ही न सके। देवताओं मे से एक ने सुझाव दिया कि इस शक्ति को समुद्र की उस गहराई में रख दें जहां पहुँचना सम्भव न हो। दूसरे देवता ने कहा कितना अच्छा हो इसे हिमालय के उच्चतम शिखर पर रख दें। अब तीसरे देवता की बारी थी उन्होंने कहा कि इसे घने जंगल की गुफा में रखने से हमारी समस्या का समाधान सम्भव दिखाई देता है। सभी देवताओं में प्रौढ़ तथा श्रेष्ठ देवता ने परामर्श दिया कि क्या अच्छा हो कि हम इसे मनुष्य के मन की गहराई में रख दें। जन्म से बालक का मन चंचल रहता है और वह संसार के बाहर के पदार्थो की ओर आकर्षित होता है और उनको प्राप्त करने के लिए दौड़ता रहता है। मन में जादुई शक्ति का पता नहीं लग पाता अतः वह बर्हिगमन यात्रा करता रहता है देवतागण इस सुझाव से सहमत हो गए। मन में असीम शक्तियों कुशलताओं तथा क्षमताओं को देवताओं ने मन के अन्दर छुपाकर रख दिया मनुष्य की श्रेष्ठता का यही रहस्य है शरीर में पूर्णता है और इसमें गुप्त खजाना है।  जिन खोजा तिन पाईया

आनन्द की साधना 

तैत्तरीयोपनिषद् में एक बड़ी महत्त्वपूर्ण आख्यायिका आती हैं। उसमें पंचकोश की साधना पर प्रकाश डाला गया है। वरुण के पुत्र भृगु ने अपने पिता के निकट जाकर प्रार्थना की भगवन्! ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिए। वरुण ने उत्तर दिया. हे भृगु जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अन्त में जिसमें विलीन हो जाते हैं तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।

पिता के आदेशानुसार पुत्र ने उस ब्रह्म को जानने के लिये तप किया। दीर्धकालीन साधना के उपरान्त भृगु ने अन्नमय जगत में ;स्थूल संसारद्ध में फैली ब्रह्म विभूति को जान लिया और पिता के पास पहुँच कर अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान का वर्णन किया। पिता ने पुत्र को फिर कहा हे पुत्र तूम तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न करो क्योंकि ब्रह्म को तप के द्वारा ही जाना जाता है।

भृगु ने फिर तपस्या की और प्राणमय जगत की ब्रह्म विभूति को जान लिया। पिता के पास जा कर प्राप्त विभूति की बात कही। पिता ने फिर तीसरी बार उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश दिया।
पुत्र ने पुनः कठोर तप किया और अब मनोमय जगत मैं ब्रह्म विभूति का ज्ञान प्राप्त कर पिता के पास लौटा। पिता ने फिर से तप करने के लिए भेज दिया। अब उसने विज्ञानमय जगत के तत्व का बोध कर लिया। पिता अभी भी सन्तुष्ट नहीं थे। अब पांचवी बार तप में प्रवृत्त होने के लिए वापिस भेज दिया।
अब भृगु ने आनन्दमयी विभूति को उपलब्ध कर लिया। पिता के सम्मुख उपस्थित होकर उसने अन्तिम सीढ़ी का वर्णन किया। पिता श्री मैने जाना कि आनन्द ही ब्रह्म है आनन्द से ही सभी प्राणी जन्म लेते हैं और उसमें ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्द में ही विलीन हो जाते हैं। जीवन का लक्ष्य है ब्रह्मानन्द परमानन्द तथा आत्मानन्द में लीन होना। आनन्दमय कोश तक पहुँचने के लिए तप करने का संकेत है। कोशों की सीढ़ियाँ जैसे-जैसे पार होती जाती है वैसे-वैसे परब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है।
1. उपनिषद् - पंचकोश  
उत्तर . उपनिषद का तत्वदर्शी ऋषि पंचकोश सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार करता है। 

2. पंचकोशः कः 
उत्तर .अन्नमय कोश प्राणमय कोश मनोमय कोश विज्ञानमय कोश आनन्दमय कोश।
3. अन्नमयः कः
उत्तर . जो अन्न के रस से उत्पन्न होता हैं। जो अन्न के रस से ही बढ़ता है और जो अन्न रुप से पृथ्वी में लीन हो जाता है उसे           अन्नमय कोश एवं स्थूल शरीर कहते हैं।
4. प्राणमयः कः 
उत्तर . प्राण अपान ध्यान समान उदान इन पांच प्राण वायुओं के समूह और कर्मेन्द्रिय पंचक समूह को प्राणमय कोश                  कहते हैं। यही क्रिया शक्ति है।
5. मनोमयः कः 
उत्तर . मन और पांच ज्ञानेन्द्रियों के समूह के मिलने से मनोमय कोश बनता है। इसे इच्छा शक्ति तथा संकल्प कहते हैं।
6. विज्ञानमयः कः
उत्तर . बुद्धि और पांच ज्ञानेन्द्रियों का समन्वय विज्ञानमय कोश हैं। यह ज्ञानमय शक्ति है। 
7. आनन्दमयः कः 
उत्तर . सत्व के कारण आनन्द इच्छुक कोश आनन्दमय कोश है। इसे हम सूक्ष्म शरीर भी कहते हैं।
          पांच कोश. पांच सिद्धियाँ

इन पांच कोश से पांच सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं. अन्नमय कोश की सिद्धि से निरोगिता दीर्घ जीवन एवं चिर.यौवन का लाभ होता है। प्राणमय कोश से साहस शौर्य पराक्रम प्रभाव प्रतिभा जैसी विशेषताएँ उभरती है। मनोमय कोश में संकल्प दृढ़ इच्छा मन द्वारा सकारात्मक चित्रों का संग्रह तथा चरित्र का विकास होता है। विज्ञानमय कोश से सज्जनता सहृदयता सृजनात्मकता सहयोग सर्मपण सत्यान्वेश का विकास होता है और देवत्व की विशेषताएँ उभरती है।आनन्दमय कोश के विकास से चिन्तन तथा कृतित्व दोनो इस स्तर के बन जाते है कि हर क्षण आनन्द ही आनन्द की व्याप्ति रहती है। ईश्वर दर्शन आत्मसाक्षात्कार मुक्ति जैसी महान उपलब्धियाँ आनन्दमय कोश की देन हैं।
8. आध्यात्मिक यात्रा 

उत्तर . सभी कोशों पर आवरण हैं परते हैं। क्रम से आवरण हटाना और दूसरे तक पहुँचने के लिए तप करना होता है और आगे बढ़ना होता है। यह आध्यात्मिक यात्रा है। 


अन्न कोश का अनावरण 
मनुष्य देह का विकास अन्न से होता है अन्नादि भवन्ति भूतानि इस कथनानुसार प्राणी संरचना मे अन्न का प्रमुख स्थान है। छन्दोग्य उपनिषद में कहा गया है. अन्नम ही सौम्यमनः अन्न  के अभाव में स्थूल काया दुर्बल पड़ जाती है। शरीर एक भवन है यदि यह स्वच्छ सबल तथा संस्कारमय हो तो जीवन में आनन्द ही आनन्द है। युक्त आहार विचार तथा व्यवहार से अन्नकोश का अनावरण किया जा सकता हैं।

चाणक्य ने कहा हैः.

दीपो भक्ष्यते ध्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।

यदन्नं भक्षेयते नित्य जायते तादृशी प्रजा।।
दीपक अन्धेरा खाता है इसलिए काजल को जन्म देता है। मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसी ही उसकी क्रिया और परम्परा बनती है। कहा गया है जैसा खायेंगे अन्न वैसा बनेगा मन और जैसा होगा मन वैसा होगा तन। तन मन और भावभूमि को सुधारने के लिए सात्विक भोजन स्वाध्याय और संत्सग सहायक होते हैं। मित भुख हित भुख ऋतु भुख इसी त्रिसूत्र से स्वास्थ्य का संरक्षण होता है। शीतल जल से स्नान शुद्ध भोजन तथा शुद्ध जल सेवन करना चाहिए।
 

स्वादेन्द्रियों पर नियंत्रण ब्रह्मचर्य पालन आहार संयम व्यायाम सूर्यनमस्कार उपवास व्रत शरीर को सबल तथा सुदृढ़ बनाते हैं। शरीर एक रथ है जिस पर आरुढ़ होकर हम जीवन की यात्रा पूर्ण करते हैं। अतः शरीर को साधना एक धर्म है।


9.  प्राणमय कोश का अनावरण 
प्राणमय कोश आत्मा पर चढ़ा हुआ दूसरा आवरण है। अन्नमय कलेवर के भीतर जो ऊर्जा स्फूर्ति उमंग काम करती है वह प्राण है। प्राण से शरीर चलता है और प्राणी जीवित रहता है। जिसका यह कोश जितना समर्थ है वह उतना ही प्रतापी पराक्रमी तथा निर्भिक बनता है।
भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार मनुष्य की स्थूल काया में प्राण तत्व की गरिमा के अनुरुप एक प्राण शरीर भी होता है। अध्यात्म शास्त्र में प्राण तत्व का भाव भरा उल्लेख है। उसे ब्रह्म तुल्य माना है और सर्वोपरि ब्रह्म शक्ति का नाम दिया है। प्राण की उपासना से प्राणमय कोश का अनावरण होता है। प्राण ही जीवन है। संकल्पानुसार उसे विभिन्न योनियाँ प्राप्त होती हैं।

अर्थववेद में कहा गया हैः.
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिंद वशे।
यो भूतः सर्वस्येश्वरी यस्मिन् सर्वप्रतिष्ठिम्।।
उस प्राण को मेरा नमस्कार है जिसके आधीन यह सारा जगत है जो सबका ईश्वर हैए जिसमें यह सारा जगत प्रतिष्ठित है।
प्राण ही यश और बल है। प्राणश्च मे यज्ञेन कल्पन्ताम् यजुर्वेद। मेरी प्राण शक्ति सत्कर्मो में प्रवृत हो। प्राण को जागृत करना ही महान जागरण है। प्राण शक्ति का स्वरुप और अभिवर्धन व्यक्तित्व विकास की यात्रा है। प्राणायाम इस दिशा में प्रथम सोपान हैं। संध्या.वन्दना जैसे नित्यकर्मो का दिनचर्या में महत्त्वपूर्ण स्थान है। यम और नियमों का पालन यौगिक क्रियाओं का अभ्यास प्राणशक्ति को संतुलित करता है। कामी. क्रोधी तथा गन्दे भद्दे दृश्य देखने तथा उत्तेजक गीत सुनने से प्राणों का अपव्यय होता है। प्राणो को सन्तुलित सद्विचारों से रखा जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना करते हुए इसे मानसिक शक्ति कहा है। आचार्य यम ने नचिकेता को उपदेश देते हुए कहा था प्राणयाम से मन एकाग्र होने लगता है जिसने प्राण को जीत लिया उसने मानसिक शक्ति को अर्जित कर लिया।
प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है। चित्तशुद्धि से अन्तःकरण में प्रकाश होता है उसी प्रकाश में आत्मा का साक्षात्कार होता है। यह यात्रा का दूसरा पड़ाव है।
10. मनोमय कोश का अनावरण 
पंचकोश में तीसरा मनोमय कोश है। मन बड़ा चंचल और वासनामय है। श्रीमद्भगवद्गीता में मन के सम्बन्ध में कहा गया है कि मन ही मनुष्य का शत्रु और मन ही मित्र है बन्धन और मोझ का कारण भी यही है। सब भोगों को भोगने अहंकार की पूर्ति करने अर्थ संग्रह मन के प्रधान काम हो गए हैं। मनुष्य को नरकीय पतितावस्था तक पहुँचा देना अथवा उसे नर से नारायण बना देना मन का ही खेल है। मन में जैसी कल्पनाएँ इच्छाएँ वासनाएँ आकाक्षाएँ तृष्णाएँ उठती है उसी ओर शरीर चल पड़ता है।

मन को वश में होने का अर्थ है उसका बुद्धि और विवेक के नियंत्रण में होना। मन की एकाग्रता एवं तनमयता में इतनी प्रचण्ड शक्ति है कि संसार में उस शक्ति की तुलना किसी शक्ति से नहीं हो सकती। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है यदि मेरा फिर से जन्म हो प्रभु से प्रार्थना करूंगा कि मुझे ऐसी प्राथमिक शाला में प्रवेश मिले जहां एकाग्रचित्तता का पाठ पढ़ाया जाता हो

पतंजलि ऋृषि ने योग की परिभाषा करते हुए कहा है कि योगश्चित्तवृत्ति निरोधः अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना उनको रोक कर एकाग्र करना ही योग है। संसार के किसी भी कार्य में प्रतिभा यश विद्या स्वास्थ्य अन्वेषण आदि जो भी वस्तु चाहिए वह वशवर्ती मन के प्रयोग से निश्चित हैं। मन के जीते जीत है मन के हारे हार है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को मन को वश में करने को दो उपाय बताये हैंः. 
1. अभ्यास     2. वैराग्य


योग साधनायें मन को वश में करती हैं। यह अभ्यास से सम्भव है। वैराग्य का अर्थ है व्यवहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना। आदर्श लक्ष्य इष्ट निर्धारित करके उसमें तन्मय होने को ध्यान कहते हैं जैसा ध्यान किया जाता है मनुष्य वैसा ही बनने लगता है। ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों द्वारा किये गए कार्यो से अच्छे और बुरे चित्र बनते हैं उनका संच ही मन हैं।अतः अच्छा देखें अच्छा सुनें अच्छा बोले और अच्छे कार्य करें।
सकारात्मक मन देवता और परम देव है। उसकी साधना किये बिना क्लेशों और दुःखों की निवृत्ति नहीं हो सकती। मन को जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है।

 

मनोमय केाश को व्यवस्थित बनाने के लिए ध्यान एकाग्रचित्तता चित्त निरोध समाधिक अभ्यास स्वाध्याय सतसंगति आदि के साधन अपनाने चाहिए। गीता के अध्याय 10 श्लोक 25 में कहा गया है कि में जप श्रेष्ठ है। अतः पुण्य साधना के लिये जप करना चाहिए। मनोमय कोश का अनावरण अध्यात्म यात्रा का तीसरा सोपान है।

 विज्ञानमय कोश का जागरण 

आत्मोन्नति की चतुर्थ भूमिका में विज्ञानमय कोश की साधना की जाती है। विज्ञान का अर्थ है विशेष ज्ञान। साधारण ज्ञान का परिणाम स्थूल शरीर तक सीमित है। विशेष ज्ञान से आत्मविद्या प्राप्त होती है जिसे हम परा विद्या भी कहते है।आत्मज्ञानी वह है जो यह अनुभव करता है मैं विशुद्ध आत्मा हूँ आत्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं।

जीवात्मा के तीन गुण है.सत्यं शिवं सुन्दरम्। आस्था उमंग और सरसता का समन्वय ज्ञान भावना और क्रिया का संगम इच्छा ज्ञान और क्रिया की त्रिवेणी विज्ञानमय कोश जागरण के विविध प्रवाह है। इस प्रवाह का उद्गम स्थान अन्तरात्मा है। साधना विज्ञान में इस अन्तरात्मा को विज्ञानमय कोश कहा गया है।


विज्ञानमय कोश की सुप्त स्थिति को हटा कर उसमें जागृति उत्पन्न कर देने पर असमान्य मनुष्य सामान्य न रह कर असामान्य हो जाता है। विज्ञानमय कोश चेतना का वह स्तर है जो अपने भीतर उच्च स्तरीय विभूतियों को छिपाये रहती है। विज्ञानमय कोश का विकास सद्भावनाओं की अभिवृद्धि में होता है। हृदय उदारता प्रेम संयम परमार्थ की भावना साझेदारी समर्पण साधक के गुण है। यह सब मस्तिष्क के दायें भाग में वास करते है।अतः कहा गया है कि मस्तिष्क के बायें भाग जिसमें तर्क अंह जानकारियों के ढ़ेर रहते हैं वहां से दायीं ओर जाना चाहिए।  

  •  स्वामी विवेकानन्द ने विज्ञानमय कोश की साधना के लिये आत्मानुभूति की विधि बतलाई है। यह साधना है सोऽहम् का उच्चारण। आत्मानुभूति के लिए आत्मचिन्तन करें मै किसी भी सांसारिक हानि-लाभ से प्रभावित नहीं होता । मै शुद्ध चैतन्य सत्यस्वरुप पवित्र अविनाशी आत्मा हूँ। परमपिता का अंश हूँ ध्यान में एकाग्रचित यह मन्त्र मन ही मन जपिये। आत्मचिन्तन तथा आत्मदर्शन की यह दो साधनाएँ हैं। इन सब विधियों तप तथा जप से हम विज्ञानमय योग का जागरण कर सकते हैं।आनन्दमय कोश का अनावरण।

आनन्दमय कोश में पहुँचा हुआ जीवन अपने पिछले चार शरीरों अन्नमय प्राणमय मनोमय और विज्ञानमय कोशों को भली प्रकार समझ कर सांसरिक समस्याओं को हल्का मान वह अपने दृष्टिकोण में सात्विकता वास्तविकता सूक्ष्मदर्शिता को प्रधानता देता है।

आनन्दमय कोश जीवात्मा पर चढ़ा अन्तिम आवरण हैं। यहां पहुँच कर उसके जीवन में सोऽहम्स्मि सच्चिदानन्दोस्मिएशिवोहम् अहम् ब्रऽहम्स्मि के उद्घोष होने लगते है। आनन्दमय कोश शिव शक्ति का संगम है। आत्मसता का मूल स्वरुप सत्यं शिवं सुन्दरम् है। परमात्मा आनन्द स्वरुप हैं आनन्दमय कोश की साधना का स्वरुप ईश्वर और जीवन की मिलन अवस्था है। श्रद्धा और भक्ति से हम इस समन्वय के यात्री बनते हैं।


जीवन जब बन्धन मुक्त होता हैं तो हृदय में जो आनन्द का समुद्र उमड़ता है यही जीवन का लक्ष्य है आनन्द में लीन वह जीवन भी आनन्दमय हो जाता है।


ऐसी स्थिति तक पहुँचने के लिए मनः स्थिति को समाधि कहा गया है। समाधि से स्वर्ग की अनुभूति और प्राप्ति होना सुनिश्चित है।
 

स्वर्ग में रहने वाले देवता भी मनुष्य देह के जन्म की अभिलाषा करते है। क्योंकि मनुष्य के पास लोक ज्ञान भक्ति तथा मोक्ष के साधन होने से वह श्रेष्ठ है।

आनन्दमय कोश की क्रमशः तीन उपलब्धियाँ हैं. समाधि स्वर्ग और मोक्ष। बन्धन मुक्ति अर्थात अभावों से मुक्ति दुर्बलताओं से मुक्ति हीन भावनाओं से मुक्ति। मनुष्य ईश्वर का राजकुमार है। उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करके वह इसी जीवन में ही परमेष्टि में लीन हो सकता है। 
 

वह अपनी आत्मा का इतना परिष्कार करता है कि उसे सृष्टि में सर्वत्र आत्मीय आत्मन आत्मस्वरूप प्राणी दिखाई देते हैं। 
गीता के अध्याय छः श्लोक 28 में कहा है.
    या मां पश्यति सर्वत्र च मयि पश्यति 
    तस्याहं न प्रणश्यामि स च में न प्रणश्यति।।

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप और सम्पूर्ण भूतों को मेरे अन्तर्गत देखता है उसके लिए मैं और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होते।  
 

आनन्दमय कोश अन्तरात्मा की उच्चतम स्थिति है। यह साधना अन्तिम है। आनन्दमय कोश का अनावरण प्रेम तथा भक्ति से ही सम्भव है। प्रेम से अधिक प्रिय भगवान को और कुछ भी नहीं। भगवान चाहते है उनके बन्दों से प्यार किया जावे।   
मुझे मोक्ष नहीं चाहिए। मैं हजार बार जन्म लेकर गरीब  दुःखी और जो शैतान भी क्यों न हो उनकी सेवा करना चाहता हूँ। मेरे लिये यह सब भगवान हैं।

शिक्षा. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास
वेदों में शिक्षा को ज्ञान का काजल कहा गया है इससे दृष्टि और दृष्टिकोण निर्मल तथा स्वस्थ होते हैं।

 

स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में शिक्षा के माध्यम से हम अन्तर्निहित शक्तियों को प्रकट कर सकते है।  
 

गांधी जी ने शिक्षा को हाथ सिर और हृदय को विकसित करने के अभ्यास के रुप में परिभाषित किया है। श्री अरविन्द जी ने कहा है कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो शरीर मन भावनाओं को समृद्ध करे। स्वामी दयानन्द  जी ने कहा शिक्षा का अर्थ है जिसके द्वारा व्यक्ति धर्मात्मा सौम्य जितेन्द्रिय एवं चरित्रवान बनें।

 
डेलवर रिपार्ट 1966 में कहा गया है कि शिक्षा निरन्तर उथल पुथल भरे जटिल संसार में मानचित्र और रास्ता खोज निकालने के लिए दिक्सूचक  उपलब्ध कराती है; पृष्ठ 85द्ध। शिक्षा एक ज्ञान दीप है जो अज्ञानता को काटती और ध्वंस कर देती है जो हमें मृत्यु से अमरता और अधंकार से प्रकाश की ओर ले जाती है। असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतं गमय।।1972 में यूनेस्को ने शिक्षा को सम्पूर्ण मनुष्य विकसित करने की प्रक्रिया कहा था। कार्ल रोजर्स ने शिक्षा के द्वारा सम्पूर्ण मनुष्य का पूर्ण पुष्पित व्यक्तित्व का विकास कहा है। यूनेस्कों ने अपने प्रतिवेदन का नाम दिया है। 


शिक्षा हमें इस खजानें तक क्यों नहीं पहुँचाती है गीता इस का उत्तर देती है। भगवान कृष्ण ने 5 अध्याय के 15वे श्लोक में कहते है अज्ञानेन आवृतम् ज्ञानम्। अज्ञानता के आवरण को हटाये बिना हम ज्ञानकोश के दर्शन नहीं कर सकते।

शिक्षा अनिवार्य रुप से मनुष्य निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया है। शरीर की सबलता प्राणों का सन्तुलन हृदय की पवित्रता मस्तिष्क की विवेकशीलता और आत्मा के परिष्कार से आनन्द की अनुभूति ही सम्पूर्ण मानव के लिए शिक्षा है। यह ब्राह्य तथा अर्न्तयात्रा से सम्भव है। महर्षि कणाद ने कहा है यतो हि अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धि सः धर्मः। श्रेयस यात्रा है। निःश्रेयस तीर्थ यात्रा है। विवेकानन्द जी के शब्दों में .जीवन लक्ष्य तक पहुँचने के लिए दोनो यात्राएँ करना अनिवार्य है। इसी में सम्पूर्ण व्यक्तित्व की सफलता है।  
 

डाॅ सम्पूर्णानन्द जी का कथन है कि शिक्षा का लक्ष्य और जीवन के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं। मनुष्य अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचने के लिए चार पुरुषार्थ करता हैः. धर्म अर्थ काम मोक्ष। जीवन का लक्ष्य अन्तिम है  बन्धन मुक्ति मोक्ष को पायें। 
शिक्षा का भी उद्देश्य यही है .सा विद्या या विमुक्तये दोनाे का लक्ष्य मोक्ष है। ज्ञान भक्ति तथा कर्मयोग से दैवी सम्पदा प्राप्त कर हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा सम्पन्न करते हैं। जीवन और शिक्षा दोनों के लक्ष्य की प्राप्ति का प्रमुख साधन धर्म है वह ज्ञान के बिना अन्धा भावना के बिना निष्प्राण तथा क्रिया के बिना लूला लंगड़ा न हो। ज्ञान भावना तथा क्रिया के संगम से यह यात्रा प्रारम्भ होती है। शिक्षा का स्वरुप अखण्डमण्डलाकार है। समन्वयन के द्वारा ही हमें उस स्वरुप के दर्शन होते है. शिक्षा की प्रत्येक गतिविधि पाठ्यचर्या विषय. पाठ्यक्रम पुस्तकें आचार्य छात्र अभिभावक इन सबमें एकात्म भाव है। शिक्षित व्यक्ति सब में एक आत्मा के दर्शन करता हैं। उसके अहम् का विस्तार नहीं परिष्कार होता है और वह अपने ध्येय प्राप्ति के लिए यात्रा के लिए निकल पड़ता है। यह सप्तपदी यात्रा है। व्यक्ति परिवार समाज राष्ट्र विश्व जड़.चेतन परमेष्टि यात्री प्रत्येक पड़ाव के परिधि को लाघंकर कदम आगे बढ़ाता जाता है। चरैवेति चरैवेति। स्वामी रंगनाथानन्द जी का कथन है अपनी प्रतिभाओं तथा क्षमताओं के आधार पर व्यक्ति व्यक्तिनिष्ठ बनता है और जब वह अपने सम्पूर्ण गुण और कुशलताओं को समाज को समर्पित कर देता है तब वह व्यक्तित्व में रूपान्तरित होता है। व्यक्तित्व से वह सुघड़ आत्मीय परिवार की संरचना कर समाज में समरस होता है। समाज के प्रति परस्परनुकूलता राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता की सुदृढ़ तथा पुष्ट नींव बनती है और देश परमवैभव की ओर अग्रसर होता है। सर्वसम्पन्न संगठित सुसंस्कृत राष्ट्र अपने देश तथा विश्व के कल्याण की चिन्ता करता हैं। अपने ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट सन्देश सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत को जीवन में यथार्थ कर सभी जड़ चेतन में ईश्वर का साक्षात्कार करता है। उसे कण-कण में भगवान के दर्शन होते हैं। आत्मवत् सर्वभूतेषुयः पश्यति सभी प्राणियों मे आत्मा के दर्शन करना ही शिक्षित तथा ज्ञानवान व्यक्ति का लक्षण है। 
अब अन्तिम चरण है मै तो था उसका ही श्वास जिसे चुरा लाया यह विश्व समीर।जल मे कुम्भ कुम्भ में जल। बाहर भीतर पानी। टूटा कुम्भ .जल जलहि समाना।। लौकिक बन्धनों से मुक्त होना यही अध्यात्म यात्रा की समाप्ति है।     
   

पांच कोशों के अनावरण के लिए जो तप कियाए गुण अर्जित किये यही पूर्ण जीवन है तथा समग्र शिक्षा है। यात्रा के यज्ञ की समिधा है। इदं नमम्। सर्व भूतहिते रतः.ऊँ शान्ति।

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