शिक्षा एवं आध्यात्मिकता
शिक्षा का आध्यात्मिक स्वरूप अर्थात छात्रों में नि:स्वार्थ एवं सेवाभाव का विकास करने वाला पाठ्यक्रम क...
युनेस्को की डैलर्स समिति ने कहा है कि किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होनी चाहिए। मैनें उसमें एक शब्द "प्रकृति" जोड़ा हैं इस दृष्टि से किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति, प्रकृति एवं प्रगति के अनुरूप होनी चाहिए। आज भारत की शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार की है क्या? यह यक्ष प्रश्न है।
भारतीय संस्कृति को अगर एक शब्द में दर्शाना है तो वह है “आध्यात्मिकता।" यही एक तत्व है जो विश्व की अन्य संस्कृतियों, सभ्यताओं से हमको अलग करता है। इसी से “सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, सर्वे भद्राणी पर्यन्तु मा कश्चिद दुःख भागभवेत" एवं “वसुधैव कटुम्बकम' जैसे मंत्रों एवं ध्येय वाक्यों का सृजन हुआ। हमारे जो भी मंत्र है, ध्येय वाक्य या कहावतें है वह सब मात्र सिद्वांत नहीं है परन्तु हमारी परम्परा अनुभवजन्य एवं व्यवहारिक ज्ञान को जीवन का हिस्सा बनाने की रही है, बाद में सब बातें सिद्धांत के तौर पर लिखी गई एवं स्थापित की गई है।
आज विश्व में पश्चिम के देशों द्वारा थोपा गया वैश्विीकरण गरीब, अविकसित देशों को लूटने का माध्यम बनाया गया परन्तु हमारी “वसुधैव कुटुम्बकम्' की संकल्पना भारत के जन-जन के जीवन व्यवहार एवं आचरण में देखने को मिलती है। यह बाते हमारे यहां व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के दैनन्दिनी व्यवहार से जुड़ी हुई थी। उदाहरण के लिये सुबह पक्षियों को दाना-पानी देना, चीटियों को आटा देना, माताएं रोटी बनाते समय प्रथम रोटी गाय के लिए निकालती थी, भोजन करने से पूर्व प्रथम गौ ग्रास निकाला जाता था, कुएं से पानी भरते समय दो बाल्टी अपने लिये निकालते थे तो एक बाल्टी पशुओं के लिये हौदे में डालते थे आदि। इसी हेतु भारत को आध्यात्मिक राष्ट्र कहा गया है।
पारिवारिक जीवन में सुख-दुख के प्रसंग पर दान करने की थी, गरीब पीड़ित की सहायता ससम्मान करने की परम्परा थी। स्वतंत्रता के बाद देश की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी- बेहद गरीबी का दौर था, उस जमाने में लगभग 45-50 वर्ष पूर्व हमारे कस्बे में दो विधवा महिलाएं ऐसी थी जिनके परिवार में अन्य कोई सदस्य नहीं था। उस जमाने में महिलाएं नौकरी बहुत कम करती थी। इन दोनों महिलाओं को कस्बे के सभी परिवार के लोग सुख-दुख में घर बुलाकर ससम्मान सिधा (दान) देते थे (इसमें कम से कम उनका घर पन्द्रह से बीस दिन चल सके उतना चावल, आटा, घी, गुड़ आदि साथ में एक वस्त्र) उन महिलाओं को वर्ष में 20 घर से सिधा (दान) प्राप्त होने से उनका जीवन चल जाता था। इस प्रकार के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "निःस्वार्थ भाव से कोई भी कार्य करना" यही आध्यात्मिकता है। जो जितना नि:स्वार्थी है वह उतना ही आध्यात्मिक है"
............उपनिषद में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की अवधारणा दी गई है। हमने अर्थ को नकारा नहीं परन्तु अर्थ और काम का उपयोग धर्मआधारित हो। उदाहरण के लिये हमारे यहां एक कहावत थी “सौ हाथ से कमाओ और हजार हाथ से दान करों" हम जो भी व्यवसाय-व्यापार से धन अर्जित करते है उनके हम न्यासी (ट्रस्टी) है। मेरे परिवार के लिये जितना आवश्यक है उतना उपयोग करने के पश्चात जो भी अतिरिक्त है वह समाज का है।
इसी परम्परा को हमारे आधुनिक महापुरूषों ने समय के अनुसार ढालने का प्रयास किया। महात्मा गांधी ने उसी को "ट्रस्टीशिप का सिद्धांत' नाम दिया। उसी को व्यवहार हेतु नारा दिया - “सादा जीवन उच्च विचार" । विभिन्न महापुरूषों ने इसको अपने-अपने ढंग से व्यवहारिक स्वरूप देने का प्रयास किया जैसे स्वयं की कमाई का 10 प्रतिशत या 16 प्रतिशत अलग निकालना और उसका प्रयोग स्वयं के लिए न करके समाज के लिये करना। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के शिल्पी प्रा. यशवंतराव केलकर ने जबसे शिक्षक के रूप में सेवा प्रारम्भ की तबसे अपने वेतन का एक निश्चित भाग अलग निकालकर उनका प्रयोग सामाजिक कार्यों हेतु करते थे, यह “वृत" उन्होंने आजन्म निभाया।
वर्तमान में भी हमारी यह आध्यात्मिक परम्पराएं पूर्णरूप से समाप्त नहीं हुई है, आज भी समाज में अनेक लोगों के द्वारा इस प्रकार के प्रयास किये जा रहे है। हां, इस प्रकार के प्रयासों में बहुत बड़ी कमी अवश्य आयी है। पूर्व में हमारे यहां के जन-जन में यह बात स्वाभाविकता से थी। इसको पुनः स्थापित करने के लिए दो प्रकार से प्रयास आवश्यक है। प्रथम अपने घर से इन छोटी-छोटी बातों की शुरूआत की जाए। उदाहरण के लिये बालकों के जन्मदिन पर उनके हाथ से दान कराना या पौधा रोपण कराना, घर-परिवार में सामूहिक प्रार्थना की परम्परा प्रारंभ करना, बालकों के द्वारा रोज पक्षियों को दाना-पानी की व्यवस्था करना आदि।
वर्तमान में इसका सबसे प्रभावी माध्यम विद्यालय हो सकते है। आज कितनी भी परिस्थिति खराब लगती हो फिर भी विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहां हजारो-हजार विद्यार्थी स्वीकार्य बुद्धि से आते है। उनको, अच्छा बुरा जो भी सिखाया जाए, उसको करने के लिए वह तत्पर रहते है। हमने शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा जिन विद्यालयों में “चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास" का पाठ्यक्रम लागू किया, वहां इस प्रकार के अनेक प्रयोग सफलतापूर्वक किये गये जिनके कुछ उदाहरण निम्नांकित है :
झाबुआ के केशव विद्यालय एवं शारदा विद्यालय में रोज सुबह बालक पक्षियों को दाना-पानी देते है। वह अन्न के दाने भी बच्चे स्वैच्छिक रूप से घर से लाकर एक बड़े बर्तन में इकट्ठा करते है। जिसके परिणामस्वरूप अनेक छात्रों के घरों में भी यह परम्परा प्रारंभ हो गई।
गुजरात के मोड़ासा में एक बी.एड़ महाविद्यालय में दो दान की पेटी रखी गई है, शिक्षक-छात्र सभी अपने जन्मदिन पर यथाशक्ति दान करते है। सालभर बाद उस धन को किसी अच्छी सामाजिक संस्था को दान कर दिया जाता है।
सागर (म.प्र.) के स्वामी विवेकानन्द विश्वविद्यालय में आपदा प्रबंधन का पाठ्यक्रम चलता पहुंचकर आपदा प्रबंधन का कार्य बिना शुल्क करने हेतु हमेशा तत्पर रहते हैं तो उस स्थान पर अति शीध्रता से पहुंचकर आपदा प्रबंधन का कार्य बिना शुल्क के किया जाता है।
इस प्रकार के बहुत सारे व्यवहारिक अनुभव के उदाहरण दिये जा सकते है। इसका तात्पर्य यह है कि विद्यालयों में बालकों को इस प्रकार के संस्कार मिले तो वह घर-परिवार और समाज में भी इन छोटी-छोटी बातों को आगे बढ़ायेंगे। इस प्रकार हम अपनी आध्यात्मिक परम्परा को बड़ी सहजता एवं सरलता से पुनः स्थापित कर सकते है।
आध्यात्मिकता से दूसरा तात्पर्य यह है कि स्वयं के अन्दर देखने का स्वभाव बने अर्थात “अपने को पहचानो।" गायत्री परिवार का एक नारा है "हम सुधरेगे तो जग सुधरेगा।" आज दुनिया वीमुखी हो गई है। सामान्य से लेकर विद्वान व्यक्ति आपसी वार्तालाप में देश के प्रधानमंत्री से लेकर अमेरिका के राष्ट्र प्रमुख तक की चर्चा करते है, परन्तु वही व्यक्ति स्वयं के बारे में कभी समय निकालकर चिन्तन करता है क्या? यह आज का बड़ा प्रश्न है।
व्यक्ति की स्वयं से लेकर परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की अनेक समस्याएं है उनके समाधान हेतु वह बाहर देखता है ओर प्रयास करता है परन्तु समाधान नहीं मिलता है। अधिकतर समस्याओं के उद्भव का कारण स्वयं मनुष्य ही है, जहां से समस्या का निर्माण होता है वहीं उसका समाधान होता है, यह नैसर्गिक प्रक्रिया है। इस दृष्टि से हमारी सारी समस्या का समाधान हमारे अन्दर है। देश एवं दुनिया में किसी भी क्षेत्र में जिन्होंने विशेष योगदान दिया (महापुरूष) उन सबका स्वभाव अपने अन्दर देखने का होगा तभी उन्होंने स्वयं से लेकर समाज की समस्याओं का समाधान दिया। इस प्रकार की व्यक्ति की दृष्टि का विकास होना यही आध्यात्मिकता है। अपने अन्दर देखना अर्थात अपने आत्मा से नजदीक जाना। हमारा मूल स्वरूप तो आत्मा है और आत्मा परमात्मा का ही अंश है। व्यक्ति जितना उसके नजदीक जायेगा उतना आनंदित एवं सुखी होगा।
इसी को तैत्तरीय उपनिषद में पंचकोश की संकल्पना दी गई है, उसके अन्तिम कोश का नाम आनन्दमय कोश है। आनन्दमय से तात्पर्य है आध्यात्मिक विकास, आध्यात्मिक व्यक्ति ही सच्चे आनन्द की अनुभूति कर सकता है।
शिक्षा का आध्यात्मिक स्वरूप अर्थात छात्रों में नि:स्वार्थ एवं सेवाभाव का विकास करने वाला पाठ्यक्रम का स्वरूप तथा विद्यालयों में उसके अनुरूप उपक्रमों की योजना होना चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने पर्यावरण का कक्षा एक से बारह तक का पाठ्यक्रम तैयार किया है। उनमें हर पाठ की शुरूआत में अपने प्राचीन शास्त्रो के मंत्र अर्थ के साथ दिये हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों को इसी हेतु पढ़ने चाहिये कि पर्यावरण का वास्तविक संकट पिछले 50-100 वर्षों का है परन्तु सैकड़ों-हजारों वर्ष पूर्व लिखे गये ग्रंथों में पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धित मंत्र दिये गये है। इसका तात्पर्य यह है कि भारतीय दृष्टि के अनुसार समस्या निर्माण होने से पहले समाधान की तलाश करना जिससे समस्या खड़ी ही न हो इस प्रकार की दृष्टि का विकास करना दूसरी ओर पश्चिम की दृष्टि यह है कि समस्या निर्माण होने के बाद उसके समाधान का विचार करना। जैसे एलोपेथी चिकित्सा व्यवस्था उसका एक उदाहरण है। हमारी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में समस्या होने से पूर्व उसके समाधान हेतु व्यवस्था थी। इस हेतु हमने पर्यावरण के प्रत्येक पाठ के अंत में “गतिविधियां" दी है। जो पाठ शिक्षक ने पढ़ाया और छात्रों ने पढ़ा उसके पश्चात शिक्षक एवं छात्रों को अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में क्या करना है? इस प्रकार की दृष्टि का विकास करना, यही पाठ्यक्रमों की आध्यात्मिक दृष्टि है। हमारी सारी शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का होना चाहिए। इसी दिशा में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास प्रयासरत एवं संकल्पबद्ध है।