शिक्षा का बाजारीकरण

१९९० के बाद दुनिया में वैश्वीकरण की हवा चली जिसको एल.पी.जी. (लीवरेलाइजेशन प्राइवेटाइजेशल ग्लोबलाइजेश...

अंग्रेजो के पूर्व की स्थिति :

देश में कुछ लोगों में ऐसा भी भ्रम है कि भारत में अंग्रेजों के आने के बाद शिक्षा का विस्तार एवं विकास हुआ ईसा से ७०० वर्ष पूर्व तक्षशिला विश्वविद्यालय वर्तमान पाकिस्तान में उच्च शिक्षा का महान केन्द्र था। इसके अतिरिक्त काशी, नालंदा विक्रमशिला आदि विश्वविद्यालय से जिसमें विश्व भर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे यह प्रचलित एवं वैश्विक स्तर पर सर्व स्वीकार्य तथ्य है। इसी प्रकार लगभग एक हजार वर्ष के संघर्ष के बाद जब अंग्रेजों के भारत में जाने के बाद ई.स. १८२० में ३३ प्रतिशत साक्षरता (विश्व में सबसे अधिक) भारत में ही प्रसिद्ध बांधीवादी विचारक धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक 'दी ब्यूटीफूल ट्री" में लिखा है कि . पूर्व पादरी श्री विलियम किये सर्व के अनुसार बंगाल एवं बिहार में एक लाख से ज्यादा विद्यालय थे। मद्रास प्रेसिडेन्सी में हर गांव में विद्यालय थे। १८३७ के पूर्व शिक्षा का दामिल समाज का था। पूर्व में राजा-महाराजा एवं समाज के सम्पन्न लोग शिक्षा के संचालन में अपना योगदान देते थे लेकिन शिक्षा के प्रत्यक्ष कार्य में कोई हस्तक्षेप नहीं था। बाद के समय में ग्राम पंचायतें भी शिक्षा पर ध्यान देती थी।

• १८३७ के बाद का स्वरूप :

अंग्रेजों के शासन में भारत की सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे समाप्त कर दी गई। इस कारण से देश की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो गई। कुछ वर्षों के बाद संस्कृत के पाठशालाओं को अनुदान बंद कर दिया गया और अंग्रेजी विद्यालयों को अधिकार अनुदान दिया जाने लगा। छात्रों से शुल्क लेना, शिक्षकों का वेतन एवं विद्यालय चलाने हेतु अनुदान सरकार के द्वारा दिया जाने लगा एक प्रकार से शिक्षा का सरकारीकरण शुरू हो गया।

इसके परिणामस्वरूप १८२० में ३३ प्रतिशत साक्षरता थी वह १९५५ में ७.२ प्रतिशत रह गई। २० अक्टूबर १९३५ को लन्दन के रॉयल इन्स्टीटयूट ऑफ इन्टरनेशनल अफे में गांधी जी ने अपने भाषण में कहा कि पिछले १०० वर्षों में भारत की साक्षरता का प्रमाण काफी जीरो गया है। उसके लिये जिम्मेदार है। उस समय स्वतंत्रता के आन्दोलन के साथ ए राष्ट्रीय शिक्षा" का भी आन्दोलन चला। स्वामी विवेकानन्द स्वामी दयानन्द सरस्वती, महर्षि अरविन्द्र, महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इसके परिणामस्वरूप १९४७ में साक्षरता दर १७ प्रतिशत हो गई। स्वतंत्रता के पूर्व में इस प्रकार के प्रयासों में समर्पित भाव से आर्यसमाज, सनातन धर्म सभा, भारतीय विद्या भवन आदि संस्थाओं के द्वारा बड़ी मात्रा में शैक्षिक संस्थाएं शुरू हुई। जिसका लक्ष्य पैसा प्राप्त करना कतई नहीं था। स्वतंत्रता के बाद भी इस भाव से कुछ शैक्षिक संस्था कार्यरत है। 

स्वतंत्रता के बाद

समग्र शिक्षा व्यवस्था का सरकारीकरण हुआ शैक्षिक संस्थाए या तो सीधे तौर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विधार्थियों का निश्चित शुल्क शिक्षकों का वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्था बनी।

कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई। इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आने जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारम्भ हुई। क्रमश: शिक्षा का स्वरूप धन्धे जैसा बनने लगा।

१९६० के दशक में दक्षिण भारत में व्यवसायी उच्च शिक्षा के संस्थान दिना सरकारी अनुदान से खुले जिसमें छात्रों के पास बड़ी मात्रा में शुल्क लिया जाने लगा। जिसको उस समय के पीटेशन की कहा गया एक प्रकार से अमीरों के बालकों हेतु शैक्षिक संस्थान इसके विरुद्धकृष्णन नाम के व्यक्ति ने न्यायालय में बाधक दावर की। इसके सन्दर्भ में निर्णय देते हुए न्यायालय मे 10  प्रतिशत सीटस पर अधिक शुल्क एवं ५० प्रतिशत सीटस पर मेरीट के आधार पर सामान्य शुल्क से प्रदेश की व्यवस्था दी।

• वैश्वीकरण:

१९९० के बाद दुनिया में वैश्वीकरण की हवा चली जिसको एल.पी.जी. (लीवरेलाइजेशन प्राइवेटाइजेशल ग्लोबलाइजेशन) भी कहा गया जिसका शिक्षा पर भी प्रभाव हुआ। सरकारें उच्च शिक्षा में अपना हाथ खीचने लगी। शुरू में सवसायिक महाविद्यालय सरकार के द्वारा खुलना बंद हो गया जिसके परिणामस्वरूप स्ववित्तपोषित शैक्षिक संस्थान खुलने लगे। इसके कई प्रकार के स्वरूप बनने लगे डीम्ड विश्वविद्यालय, स्वायत्त (आटोनोमस) महाविद्यालय, निजी विश्वविद्यालय आदि। यह सब नाम अलग-१ लेकिन उनका सबका स्ववित्तपोषित संस्थान का स्वरूप था। जिस पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। छत्तीसगढ़ के रायपुर में कुछ ही दिनों में १२० बिजी विश्वविद्यालय खुल गये (वहां इतने महाविद्यालय भी नहीं थे)। डीम्ड विश्वविद्यालय की संकल्पना बदल दी गई। पूर्व में किसी विषय में विशेषता प्राप्त संस्थान को हिन्द का दर्जा दिया जाता था लेकिन बाद में किसी भी निजी शैक्षिक संस्थान को हीन् का दर्जा दिया जाने लगा। यह सब कार्य शासन-प्रशासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिली भगत से होने लगे। "मामा के घर भोजन परोसने वाली माँ फिर क्या कहना? जिसका आज इस प्रकार विनत्य स्वरूप बन गया कि शिक्षा वह सब्जी मंडी का बाजार जैसे हो गई।

● शिक्षा में अल्पसंख्यकवाद :

संविधान की धारा ९.३० के तहत अल्पसंख्यक समुदाय को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। लेकिन इस धारा का इस प्रकार से दुरुपयोग शुरू हुआ कि उनको किसी प्रकार का कानून लागू नहीं हो सकता। इसका दुर उपयोग इतने आगे बढ़ा कि जिस संस्थान में अल्पसंख्यक छात्रों की संख्या बहुत कम है, शिक्षकों की भी वही स्थिति है, प्रबंधन में भी अधिक अन्य लोग है ऐसे संस्थानों को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होने लगा। इस सन्दर्भ में कोई भी सरकार या व्यायालय भी कुछ करने के लिये तैयार नहीं है। इसके विरुद्ध देश के विभिन्न न्यायालयों में याचिका दायर की गई। इन सभी याचिकाओं की उच्चतम न्यायालय में सामूहिक रूप से सुनवाई शुरू कीया निर्णय ३० अक्टूबर २०१० टी. एम. ए. पाई फाउण्डेशन विरुद्ध स्टेट आफ कर्नाटका एवं अर्द के नाम से दिया गया जिसमें अल्पसंख्यक संस्थाओं के सन्दर्भ में कुछ न कहते हुए स्ववित्तपोषित शैक्षिक संस्थानों में ४० प्रतिशत प्रेमन्ट सीटस एवं ४० प्रतिशत की वीटस की संकल्पना खारिज की गई। एक के लिये दूसरा शुल्क वहन करे वह कुदरती न्याय के विरुद्ध है इस प्रकार के तर्क दिये गये उच्चतम न्यायालय ने इस हेतु एक नई व्यवस्था बनादी जिसमें जय तर्क केन्द्र या राज्य सरकार कोई कानून नहीं बनाते तब तक प्रत्येक राज्य में शुल्क एवं प्रवेश हेतु राज्य स्तर पर दो समिति बनायी जाए और उसके द्वारा स्ववित्तपोषित शैक्षिक संस्थानों की व्यवस्था चले। अभी तक मध्यप्रदेश सरकार को छोड़कर किसी भी सरकार ने कोई कानून नहीं बनाया है। विभिन्न राज्यों में स्ववित्त घोषित शैक्षिक संस्थानों में मनमाने तरीके से शुल्क लिया जा रहा है। उदाहरण के लिए कुछ राज्यों में इंजीनियरिंग महाविद्यालय में ३० हजार है तो कुछ राज्यों ६० से ७० हजार शुल्क है। कुछ प्रतिशत मैनेजमेंट सीट है वह भी अलग-१ राज्यों में अलग-१ है जिसमें वो कोई शुल्क तय ही नहीं है। इस तरह लाखों रुपये बटोरे जा रहे है। मेडिकल कॉलेज की इस प्रकार की सीटस में 25 से 10 लाख तक शुल्क लिया जा रहा है।

विदेशी विश्वविद्यालय भी इस कड़ी का एक अगला कदम है। एक सांसद मे अपने मानव संसाधन विकास मंत्री से पूछा ओक्सफोर्ड, कैम्ब्रीज आदि वैश्विक स्तर के विश्वविद्यालय या उसी स्तर के प्राध्यापक भारत में पढ़ाने हेतु आने की सम्भावना है क्या? तब मंत्री जी के पास कोई उत्तर नहीं था विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश की शिक्षा का उद्वार करेंने यह कैसी सोच है? और विदेशी विश्वविद्यालय हेतु हम लाल जाने जा रहे है। देश के सरकारी, निजी, स्ववितप्रोषित सारे संस्थानों में आरक्षण लागू है लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों को वह लागू नहीं होगा। इस प्रकार के संस्थानों में हमारे देश की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम कैसे होगा? उन् संस्थानों में उनके देश की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम होगा। उन संस्थानों में शुल्क संरचना भी अधिक होनी ऐसे संस्थान बड़े शहरों में ही खुलेगे और उसमें अपने सांस्कृति मूल्यों की कल्पना ही व्यर्थ होनी लुस के एक अन्तर्राष्ट्रीय विद्यालय में वहां के शिक्षक ने छात्रों को बताया की परिवार व्यवस्था आपकी व्यक्तित स्वतंत्रता के लिये हानिकारक है। हमारे देश में आज भी विदेश, पश्चिम के नाम का आकर्षण है। इस कारण से ऐसे विश्वविद्यालयों में अधिक शुल्क देकर छात्र प्रवेश लेने बाद में पछताने का समय आयेगा। वर्ष २००२ में दिल्ली में कुछ छात्र आन्दोलन कर रहे थे। वह सहयोग हेतु मुझे मिलने आये। उनका प्रश्न था कि उन्होंने रशिया में मेडिकल डिग्री प्राप्त की है लेकिन देश में उस हिन्दी के आधार पर उनको नौकरी नहीं मिल रही और प्रेकटिस करने हेतु सरकार अनुमति भी नहीं दे रही है। इस हेतु सरकार के द्वारा दो वर्ष का एक पाठ्यक्रम सब किया है वह अनिवार्य रूप से करने के बाद ही वह भारत में नौकरी या व्यवसाय कर सकें ऐसा कानून है। इसमें से कई ० से २० प्रतिशत अंक लेकर रशिया में अधिक पैसे देकर प्रवेश लिये से बाद में वह वहां के छात्रों के बराबर स्तर चाह रहे थे। यह कैसे सम्भव होगा? मैले सहयोग के लिये असमर्थता बताई। एक प्रकार से स्ववित्तपोषित शैक्षिक संस्थानों से शिक्षा में जिस प्रकार से गिरावट आ रही है उसको और गति देने का कार्य विदेशी विश्वविद्यालय से होगा।

परिणाम :

आज अराजकता का माहौल है। शुल्क न भर सकने के कारण आत्महत्याएं कर रहे है। अभिभावक इस हेतु गलत कार्य करने को मजबूर है। एक प्रकार से व्यवसायिक उच्च शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग वा उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नहीं रही। प्रश्न उठता है इस प्रकार के लगभग २० प्रतिशत वर्ग को छोड़कर ८० प्रतिशत वर्ष के बच्चे प्रतिभाव नहीं है क्या? इस देश की प्रतिभाए भी युक्ति हो रही है। इन सारी परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का मात्र बाजारीकरण नहीं हुआ है। एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले किस प्रकार के निर्माण होने? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? यह बड़ा प्रश्न है। देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, चरित्र- हीनता बढ़ रही है उसकी चिंता करने से कुछ परिणाम नहीं होगा। जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रुकेगा तब तक बाकी सारी गलत बातें बढ़ना स्वाभाविक है। देश की सभी समस्याओं की जड़ वर्तमान शिक्षा है।

समाधान :

  • शिक्षा पर व्यय बढ़कार कम से कम सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का ६ प्रतिशत  किया जाए।
  • शिक्षा के व्यापारीकरण, बाजारीकरण को रोकने हेतु केन्द्र सरकार कानून बनाये।  
  • शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
  • विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के शैक्षिक संस्थानों से भी कड़े कानून हो| उनका प्रत्ययायन एवं मूल्यांकन उस देश में तथा भारत में भी हो ।
  • अपने देश की विशेष करके सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता सुधार हेतु ठोस योजना बनें।
  • उच्च शिक्षा विशेष करके व्यवसायी उच्च शिक्षा को मात्र निजी भरोसे पर न छोड़ा जाए। सरकार के द्वारा भी बने शैक्षिक संस्थान शुरू करने की योजना बनें।
  • शिक्षा की भारतीय संकल्पना को पुनःस्थापित करने हेतु प्रयास किये जाएं। शिक्षा मात्र सरकार का दायित्व न होकर समाज भी अपने दायित्व का निर्वाह करें।

RELATED ARTICLES