शिक्षा का लक्ष्य

मनुष्य का चरित्र-निर्माण हमेशा से शिक्षा का लक्ष्य रहा है।

     शिक्षा का प्रत्यक्ष सम्बन्ध् मनुष्य के जीवन से है, इसलिए शिक्षा के दर्शन को जीवन के दर्शन से काटकर नहीं देखा जा सकता है। वे दोनो परस्पर पूरक हैं और एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं। प्राचीन भारतीय जीवन-दर्शन धर्म मय था, तब जीवन के सभी क्रियाकलाप धर्म से ओत-प्रोत थे,धर्म से नियंत्रित थे। एसे में, प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन भी धर्म से प्रेरित और प्रभावित था। शिक्षा का उद्देश्य धर्माचरण की वृत्तिजागृत करना था। शिक्षा, धर्म, अर्थ, काम और  मोक्ष के लिए थी। इनका क्रमिक विकास ही उस समय शिक्षा का एकमात्रा लक्ष्य था। तब धर्म का सर्वो परि स्थान था। धर्म से विपरीत होकर अर्थ लाभ करना, मोक्ष प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध करना था। मोक्ष जीवन का सर्वो परि लक्ष्य था और यही शिक्षा का भी अंतिम लक्ष्य था। प्राचीन काल में  जीवन-दर्षन ने शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धरित किया था। जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि का प्रभाव शिक्षा-दर्शन पर भी पड़ा था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जीवन के लक्ष्य से अलग हटकर शिक्षा के लक्ष्य पर विचार-विमर्श करना एकांगी होगा। 

     शिक्षा मनुष्य को संस्कार वान बनाने की सतत प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में स्वभावतः प्रकृत अवस्था में रहने का अभ्यस्त मनुष्य विकृत अवस्था में न जाकर सुसंस्कृत बनता है और तत्तपश्चात समाज, राष्ट्र और सृष्टि को अपने अनुपम प्रदेय से समृद्ध करता है। इस प्रकार, शिक्षा का संबंध्  विकृति से न होकर संस्कृति से है। शिक्षा केवल साक्षरता का नाम नहीं है और न ही यह मात्रा सूचनाओं का संग्रहण है बल्कि शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास का आधरभूत माध्यम है। शिक्षा वहीं है जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक,बौद्धिक, नैतिक और चारित्रिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती है और प्रकारांतर से समाज, राष्ट्र और अखिल विश्व के हित में उपयोगी एक सम्यक व्यक्तित्व को प्रदान करती है। मनुष्य के व्यक्तित्व को सम्यक् रूप से गढ़ने की यह प्रक्रिया तभी सपफल हो पाती है, जब शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट होता है। 

     साध्य की स्पष्ट अवधरणा के बिना साधन दिशाहीन और अर्थहीन हो जाता है। शिक्षा के संदर्भ में भी इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है। जब तक शिक्षा के लक्ष्य की स्पष्ट, परिकल्पना हमारे समक्ष न हो तब तक शिक्षा में परिवर्तन के सारे प्रयास अंधेरे में तीर चलाने के समान साबित होंगे। यही कारण है कि जितना बौद्धिक-विमर्श, शिक्षा के स्वरूप और उसके अनुप्रयोग के संदर्भ में हुआ है, कहीं उससे अधिक विमर्श शिक्षा के उद्देश्य को लेकर हुआ है। प्रायः यह देखा गया है कि ‘लक्ष्य’ और ‘उद्देश्य’ को एक मान लिया जाता है। परंतु, लक्ष्य और  उद्देश्य में अंतर है। ‘लक्ष्य’ एक होता है, उसकी परिकल्पना एक दिशा में स्पष्ट होती है जबकि  उद्देश्य कई प्रकार के हो सकते है। वास्तव में ‘लक्ष्य’ मंजिल होता है और ‘उद्देश्य’ उस तक पहुंचने की दिशा में पड़ाव होता है। इसी प्रकार का अंतर ‘शिक्षा का उद्देश्य’ और ‘शिक्षा के  लक्ष्य’’ में भी है। हम शिक्षा के उद्देश्यों को ही उसका लक्ष्य मानकर नहीं चल सकते हैं। 

     देश, काल और परिस्थिति से अलग हटकर शिक्षा का उद्देश्य तय करने पर वह एकांगी होगा। देश, काल और परिस्थिति के अनुरूप शिक्षा का स्वरूप तय होना चाहिए और उसी के अनुरूप उद्देश्य का निर्धरण भी होना चाहिए। क्योंकि यही पद्धति वैज्ञानिक हे एवं समाज, राष्ट्र तथा विश्व के लिए कल्याणकारी भी है। यूरोपीय देशों और अन्य तथाकथित विकसित राष्ट्रों की आवश्यकताएं, उनकी सामाजिक सरचना, उनका प्राकृतिक परिवेश हमारे देश से भिन्न है। ऐसे में, उनके यहां की शिक्षा-व्यवस्था का स्वरूप एवं शिक्षा का उद्देश्य, ठीक, वैसा ही नहीं होगा जैसा हमारे यहां होगा। इसी प्रकार, एक ही राष्ट्र में शिक्षा का उद्देश्य हर काल में एक समान संभव नहीं है। प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य कुछ और था आज कुछ और है, यह एक स्वाभाविक  प्रक्रिया है, परंतु, मनुष्य का चरित्र-निर्माण हमेशा से शिक्षा का लक्ष्य रहा है। 

     देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार प्राथमिकताएं तय होती हैं, और उन्हीं प्राथमिकताओं  के आधर पर शिक्षा का उद्देश्य भी तय होता है। फिर भी, कुछ मूल्य शाश्वत, सार्वभौम एवं सनातन होते है। मनुष्य मात्रा को इन्हीं मूल्यों का बोध् कराना ही शिक्षा का शाश्वत, सार्वभौम एवं  सनातन लक्ष्य रहा है। इन मूल्यों की आधरशिला मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं समग्र व्यक्तित्व विकास में ही निहित है।

     जिस कालखंड को हम भारतीय इतिहास का नवजागरण काल कहते हैं, वह समय केवल राजनीतिक स्वराज के लिए संघर्ष का समय नहीं था, बल्कि उसी समय वैचारिक और सांस्कृतिक स्वराज के लिए भी संघर्ष चल रहा था। चूंकि शिक्षा संस्कृति की आधरशिला है। अतः उस समय  के सारे राष्ट्र-नायकों ने शिक्षा के स्वरूप एवं उद्देश्य को भारत के अनुकूल निर्धरित करने हेतु  एक जन-जागरण और वैचारिक आन्दोलन का सूत्रापात किया। स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महर्षि अरविन्द, महामना मदनमोहन मालवीय और महात्मा गाँधी प्रमुख शिक्षाविद् थे। इन सभी ने शिक्षा का ‘लक्ष्य’ क्या है- इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार-मंथन कर अपने निष्कर्ष  प्रतिपादित किए है। 

     स्वामी विवेकानंद के अनुसार ‘‘शिक्षा का लक्ष्य मनुष्य का निर्माण है।’’ उनका स्पष्ट मानना  था कि समस्त शिक्षा का अंतिम लक्ष्य मनुष्य में अंतनिर्हित क्षमताओं का विकास ही है, वे कहते हैं  कि जिस अध्ययन द्वारा मनुष्य की संकल्प-शक्ति का प्रवाह संयमित होकर प्रभावोत्पादक बन सके, उसी का नाम शिक्षा हैं। 

     महर्षि अरविन्द के अनुसार -शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य विकासशील आत्मा के सर्वांगीण विकास में सहायक होना तथा उसे उच्च आदर्शों के लिए प्रयोग हेतु सक्षम बनाना है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति की अन्तर्निहित बौद्धिक एवं नैतिक क्षमताओं का सर्वोच्च विकास है। इतना नही नहीं  श्री अरविन्द का मानना है कि शिक्षा का लक्ष्य मानव-व्यक्तित्व के समेकित विकास हेतु अति मानस का उपयोग करना है। 

     गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दृष्टि में शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक गुणों का विकास है। गुरुदेव के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य बालक को पूर्ण जीवन की प्राप्ति कराना हैं, जिससे बालक का पूर्ण विकास हो सके। उसके समस्त अंगों और इन्द्रियों के  प्रशिक्षित कर जीवन की वास्तविकता से परिचित कराना, पर्यावरण की जानकारी देर उसमे अनुकूलन स्थापित करना, धेर्य, आत्मानुशासन, नैतिकता और आध्यात्मिकता को उसके व्यक्तित्व में पिरोकर सक्षम बनाना ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है।

     महात्मा गाँधी शिक्षा के दो लक्ष्यों को स्वीकार करते है।- एक, भौतिक लक्ष्य और दूसरा आध्यात्मिक लक्ष्य। गाँधी जी एक ओर शिक्षा का लक्ष्य -स्वालंबन को मानते हैं, वहीं दूसरी और व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और आध्यात्मिक विकास को भी शिक्षा का लक्ष्य स्वीकार करते है। शिक्षा के द्वारा गांधी जी आत्म-विकास के लिए आध्यात्मिक स्वतंत्रता देना चाहते थे।  निष्कर्षतःगाँधी जी छात्रों में मानवीय गुणों के विकास को ही शिक्षा का सर्वोच्च लक्ष्य बताते हैं। 

     महामना मदनमोहन मालवीय जी मनुष्य के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसके चारित्रिक गठन, राष्ट्रीयता की भावना का विकास एवं सेवाभाव की स्थापना को ही शिक्षा का लक्ष्य बताते है।

     बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर जी लिखते हैं कि - ‘‘शिक्षा एक दुधारी तलवार की तरह है, जो व्यक्ति चरित्रहीन व विनयरहित है, वह शिक्षित होते हुए भी एक पशु से भी भयावह  है।

     बाबासाहेब शिक्षा को मानव कल्याण का महत्वपूर्ण साधन मानते है। मानवता को प्रबुद्ध करना, स्वतंत्र बुद्धि का विकास करना तथा मानव - व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन कर चारित्रिक विकास करना ही डॉ. अंबेडकर के अनुसार शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए।

     इन प्रमुख भारतीय शिक्षाविदों के अतिरिक्त स्वतंत्र भारत में जिन प्रमुख शिक्षा आयोगों का गठन हुआ है, उन्होंने भी अपने प्रतिवेदनों में शिक्षा के उद्देश्य को निर्धरित करने का प्रयास किया  है। इनमें कुछ प्रमुख आयोगों द्वारा प्रतिपादित शैक्षिक उद्देश्य इस प्रकार है:- 

1. कोठारी आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य 

♣ राष्ट्र के आर्थिक उत्पादन में वृद्धि करना। 

♣ सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास करना। 

♣ जनतंत्र को सृदृढ़ बनाना। 

♣ देश का आधुनिकीकरण करना। 

♣ देश में सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों का विकास करना। 

2. विश्वविद्यालय आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य 

♣ विवेक का विस्तार करना। 

♣ नए ज्ञान के लिए इच्छा जागृत करना। 

♣ जीवन का अर्थ समझने के लिए प्रयत्न करना। 

♣ व्यावसायिक शिक्षण की व्यवस्था करना।

3. माध्यमिक आयोग के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य 

♣ चरित्र-निर्माण एवं व्यक्तित्व का विकास 

♣ जनतांत्रिक नागरिकता का प्रशिक्षण । 

♣ कुशल जीवन यापन करने की शिक्षा। 

♣ व्यावसायिक कुशलता की उन्नति। 

      यूनेस्कों की डैलर्स समिति ने अपने रिपोर्ट में कहा है कि ‘‘किसी भी देश की  शिक्षा का स्वरूप उस देश की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होना चाहिए।’’ऐसे में, यदि शिक्षा का स्वरूप प्रत्येक राष्ट्र की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होना चाहिए तो उस राष्ट्र में शैक्षिक लक्ष्य भी वहां की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप ही तय होने चाहिए। इंग्लैंड के प्रख्यात, शिक्षाविद् हरबर्ट स्पेंसर का कहना है कि शिक्षा का ध्येय चरित्र-निर्माण है। सपेंसर का मानना है कि व्यक्ति को उसे पूर्ण जीवन के लिए तैयार करना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए। 

     चरित्र का महत्व केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु पूरे विश्व में स्वीकार किया गया है। यह अलग बात है कि भारत में चरित्र को मनुष्य का सर्वस्व मानने की एक सुंदर परंपरा रही है। हमारे यहां कहा गया है कि यदि धन नष्ट होता है तो कुछ भी नष्ट नहीं होता, यदि स्वास्थ्य नष्ट होता है, तो कुछ अवश्य नष्ट होता है, पर यदि चरित्रा नष्ट होता  है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है। स्वामी विवेकानंद जी का स्पष्ट मानना है कि मनुष्य की प्रथम एवं प्रधान आवश्यकता है उसका चरित्र-गठन। वे कहते हैं कि यदि चरित्र निर्माण हो गया तो बाकी सब निर्माण स्वतः हो जाएंगे। स्वामी जी से भी पहले महर्षि चाणक्य ने चरित्र को इतना महत्वपूर्ण माना है कि वे कहते हैं चरित्र की शिक्षा यदि घटिया प्राणी से भी मिले तो ग्रहण करना चाहिए।

     महात्मा गाँधी भी चरित्र को काफी महत्वपूर्ण मानते है। वे कहते हैं कि मनुष्य की महानता उसके वस्त्रों से नहीं उसके चरित्र से आंकी जाती है। गाँधी जी का मानना था कि चरित्र के अभाव में मनुष्य पशु से भी एक सीढ़ी नीचे गिर जाता है। वे साफ-साफ कहते  थे कि यदि मनुष्य का चरित्र निर्माण हो गया तो साहस, लगन और दुनिया की सारी  सफलताएँ दौड़ी चली आएगी।

     मनुष्य के चरित्र के संदर्भ में गुरु गोलवलकर जी का मानना था कि चरित्रवान को सब कुछ उपलब्ध् है और चरित्रहीन व्यक्ति उपलब्धी को भी खो देता है।

     पाश्चात्य विचारकों ने भी चरित्र निर्माण की महत्ता को स्वीकार किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन कहते हैं कि चरित्र वृक्ष के समान है और यश उसकी छाया के समान है। हम किसी विषय में जो सोचते है, वह छाया है, वास्तविक वस्तु तो वृक्ष ही है। इसी प्रकार पाश्चात्य विचारक रोमों का मानना है कि - चरित्र ही सपफलता अथवा विषमता का धोतक है। चरित्र सफल है तो जीवन भी सफलता की ओर बढ़ेगा, किन्तु चरित्र असफलता की ओर अग्रसर है तो जीवन अवश्य पतनोन्मम दुःख होगा।

     सुप्रसि( पाश्चात्य चिंतक बू्रस ली के अनुसार- ‘ज्ञान आपको शक्ति देता है और चरित्र सम्मान देता है। यूनानी दार्शनिक अरस्तु के अनुसार- चरित्र की शिक्षा जीवन के उच्च मानदंडों के लिए हैं, जीविका उपार्जन के लिए नहीं। इस प्रकार हम पाते हैं कि मनुष्य-जीवन में चरित्र-गठन की महत्ता एक सार्वभौम मूल्य है।           कुल मिलाकर स्वतंत्राता के 70 वर्षों के बाद भी भारतीय शिक्षा के लक्ष्य का सुनिश्चित न हो पाना एक महत्वपूर्ण एवं गंभीर प्रश्न है। पाश्चात्य जगत से लेकर भारत  तक ‘शिक्षा के लक्ष्य’ को लेकर जो भी मंथन हुए हैं, सभी में मनुष्य के चरित्रा-निर्माण एवं  समग्र व्यक्तित्व विकास को केन्द्र रखा गया है। हरेक राष्ट्र को देश, काल और परिस्थिति  एक समान नहीं होती है। ऐसे में शिक्षा के कुछ उद्देश्य देश, काल एवं परिस्थिति के  अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते है- इस तथ्य को यूनेस्कों की डेलर्स समिति ने भी  रेखांकित किया है। हमारा मानना है कि ‘‘देश को बदलना है, तो शिक्षा को बदलना होगा।’’ देश केवल जमीन का टुकड़ा नहीं है, उसमें यहां का जन भी सम्मिलित है। यहां  जन केवल हाड़-मांस का पुतला नहीं है, उसमें मन भी शामिल है। ऐसे में, देश के जन के  मन को परिष्कृत कर समाजोन्मुखी एवं राष्ट्रोन्मुखी बनाने में शिक्षा की महती भूमिका है। 

     अंततोगत्वा शिक्षा के विकास की ऐतेहासिक पृष्ठभूमि, प्रमुख शिक्षाविदों के  शैक्षिक-दर्शनों के विश्लेषण, पाश्चात्य शिक्षाविदों के शैक्षिक विचारों के अवलोकन एवं स्वतंत्रा भारत के विविध् शैक्षिक आयोगों के प्रतिवेदनों के अध्ययन के उपरांत् यह कहा जा  सकता है कि शिक्षा के शाश्वत, सार्वभौम एवं सनातन लक्ष्य मनुष्य के चरित्र का निर्माण एवं व्यक्तित्व का समग्र विकास ही रहा है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में ही समस्त शैक्षिक  उद्देश्यों की  चिन्हित है। 

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