शिक्षा की चुनौतियाँ
भारत की प्राचीन स्वर्णिम वाणी जो ऋषियों मनीषियों द्वारा अखण्ड रूप से इस देश में निसृत होती आ रही है,...
शिक्षा की चुनौतियाँ
यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा का कार्य बहुआयामी वैश्विक राष्ट्रीय तथा सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया के चक्के को हाथ लगाना है। रिपोर्ट 2001 के पृष्ठ क्रमांक 2 में कहा गया है "विश्व के विकास की कार्य सूची में सभी विषयों जैसे निर्धनता उन्मूलन, स्वास्थ्य संरक्षण तकनीकी जानकारी का आदान-प्रदान, पर्यावरण का रक्षण, लिंगभेद समापन, प्रजातान्त्रिक प्रणाली को सुदृढ़ करना तथा शासन-प्रशासन में सुधार, सब के लिये न्याय सुलभता शिक्षा के माध्यम से इन सभी विषयों को एकात भाव से देखा जाना चाहिए।
भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली और दर्शन शास्त्रों का अवलोकन करने से यह सिद्ध होता है कि हमने युनेस्को के कथन को सहस्त्रों वर्ष पूर्व सार्थक किया था। दुर्भाग्य है कि आज हम अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान तथा सांस्कृतिक धरोहर से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं और हमने अपने स्वरूप के प्रति हीन भावना जागृत हो रही है। अंग्रेजों के काल से योजना पूर्वक हमारे ज्ञान, सांस्कृतिक पुरोधाओं, वाडमय, साहित्य का मजाक उड़ाया गया था। मैकॉले का यह कथन हमारे अनुभूत ज्ञान पर एक गहरी चोट थी। उसका कथन है (A Single shelf of a good European Library was worth the whole native literature of India (See 2005p.77) यूरोप की पुस्तकालय की एक अलमारी का साहित्य भारत के समग्र साहित्य से मूल्यवान है।"
मैकॉले की उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल की टिप्पणी में न केवल मिथ्या अभिमान है, अपितु यह तथ्यों से परे भी है। भारत में बुद्धिजीवियों पर भी एक गहरी चोट है तब से अब तक शिक्षक और युवा पीढ़ी हीन भावना से ग्रस्त हैं। इस भावना से छुटकारा पाने के लिए शिक्षा जगत को भारतवर्ष की वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों में राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सांस्कृतिक गौरव को पुनःजागृत करने एवं समाज में सतत प्रवाहित करने हेतु संगठित अभियान चलाने का संकल्प लेना चाहिए।
प्राचीन भारत ने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र जो विश्व को देन दी है उसे पढ़ने, पढ़ाने और समझने-समझाने की आवश्यकता है। नानी पालकीवाला ने 2000 में हीन भावना को त्याग अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर गर्व करने की बात की थी। अंग्रेज़ काल के भारत में अभारत के चिन्ह मिटाने का समय आ गया है। पालकीवाला ने लिखा है :
"The colonial experience of India not only had the effect of undermining the intellectual self confidence of Indians it has also been especially hard on the type of recognition that Indians may standardly have given to the country's scientific and cultural traditions.
The Golden voices of ancient Indian have come to us down the ages in unbroken continuity through Rishis and Saints- Some of them world famous and some of them nameless. Our culture which is primarily concerned with spiritual development is of special significance in our age which is marked by the obsolescence of material civilization. In the words of Sri Aurobindo " India of the ages is not dead nor has spoken her last creative word; she lives and has still something to do for herself and the human race" (Palkhivala P.2)
भारत की प्राचीन स्वर्णिम वाणी जो ऋषियों मनीषियों द्वारा अखण्ड रूप से इस देश में निसृत होती आ रही है, वह विश्ववन्दनीय है हमारी संस्कृति का आधार अध्यात्मिक है।
अरविन्द जी नै भविष्यवाणी करते हुए लिखा है "युग युगान्तरों से भारत की औजसव वाणी कोई अन्तिम शब्द नहीं है। वह जीवित है उसे संसार तथा मानवता को बहुत कुछ देना शेष है।"
भारत का ज्ञान विज्ञान ऋषि मनीषियों की जीवन की प्रयोगशाला से अविष्कृत सिद्धान्त, हमारी संस्कृति, हमारी पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम का भाग बनना चाहिए। हीन भावना से मुक्ति देश के लिए वैकल्पिक शिक्षा का प्रथम सोपान है।
● वैश्वीकरण- समान संस्कृति
वैश्वीकरण एक आकर्षक शब्द है। इस शब्द के उच्चारण से हमारे सामने मानवता का व्यापक स्वरुप उपस्थित होता दिखाई देता है और हम कहने लगते हैं कि हम एक ही पृथ्वी के पुत्र हैं। हम सर्वव्यापी हैं और हमारी संस्कृति समान हैं यह सब दिवा स्वप्न है। ऐसी सोच हमें आत्म प्रवंचना की दुनिया में ले जा रही है।
जब हम बारीकी से स्थिति का विश्लेषण करते हैं तो लगते है कि वैश्वीकरण की अवधारणा में स्वार्थो की टकराहट है और क्रय-विक्रय की मण्डी में बोली लग रही है। विकसित देश विकासशील देशों पर धन तथा बल के आधार पर साम्राज्यवादी प्रभुत्व स्थापित करने के लिए दादागिरी कर रहे हैं और हमें समझाने का प्रयास करते हैं कि अब विश्व एक ग्राम है अतः लेन-देन तथा आर्थिक सहयोग से संघर्षो को टाला जा सकता है परन्तु यह छलावा है।
संघर्षो ने आतंकवाद, मजहबी उन्माद, प्रकृति का शोषण परमाणु अस्त्र शस्त्रों - भण्डारण, साम्राज्यवाद, यह सब वैश्वीकरण की देन है। विज्ञान तथा तकनीक ने मिल कर देशों को विकासवाद के झूले पर झुला कर परमाणु का पुरुषों का विस्तार तो किया है, अणु पुरुष विकसित नहीं हुए हैं। बाजार, मण्डी तथा प्रतिस्पर्धाओं ने शिक्षा जगत को भी प्रभावित किया है। जीवन मूल्यों, चरित्र निर्माण तथा व्यक्तित्व विकास की शिक्षा का पाठ्यचर्या तथा पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं - शिक्षा की परिभाषा बौनी हो गई है। केवल जानकारियों के ढेर को मस्तिष्क में ठूंसने का प्रयास हो रहा है जिस के परिणामस्वरूप लक्ष्यविहीन युवा पीढ़ी स्वेच्छाचारी बनती जा रही है। आधुनिकता के नाम पर पाश्यात्यीकरण का प्रभाव, वेशभूषा, खानपान, रहन-सहन, मन मस्तिष्क को प्रदूषित करता जा रहा है।
"समान संस्कृति के नाम पर प्राचीन ज्ञान-विज्ञान को भारत के पाठ्य पुस्तकों से बहिष्कृत कर दिया गया है। आधुनिकता के नाम पर प्राचीन बुद्धिमत्ता से विछोह हो गया है और देश की धरती से सम्बन्धविच्छेद कर दिया गया है। यूनेस्को के कथनानुसार किसी भी देश की शिक्षा का सम्बन्ध उस देश की संस्कृति के संरक्षण तथा विकास के लिये होना चाहिए The education of the country should be moted to its culture and wedded to its growth" इस कथन से मार्गदर्शन प्राप्त न करते हुए हम वैश्वीकरण के नाम पर पाश्चात्यीकरण का अन्धानुकरण कर रहे हैं और यह शिक्षा के लिये बहुत बड़ी चुनौती है।
हमारी संस्कृति के तीन मुख्य वैशिष्ट्य है :
• सत्य एक है विद्वान लोग उसे अनेक ढंगो से कहते हैं "एक सद् विप्राः बहुधा वदन्ति"
• विश्व एक परिवार है। प्रतिस्पर्धा की मण्डी नहीं इस में सहयोग, सहकारिता तथा साझेदारी का भाव है।
• सृष्टि में एकात्मकता है, सहअस्तित्व है, अनेकता में है। एकता
भारतीय दर्शन के इन तीन सूत्रों के आधार पर ही वैश्वीकरण की संकल्पना को सार्थक किया जा सकता है और "सर्वे भवन्तु सुखिनः और सर्वेसन्तु निरामया" का वेद कथन विश्व शन्ति का आश्वासन बन सकता है।
शिक्षा का व्यापारीकरण
व्यापारीकरण, व्यवसायीकरण तथा निजीकरण ने शिक्षा क्षेत्र को अपनी जकड़ में ले लिया है। मण्डी में शिक्षा क्रय-विक्रय की वस्तु बनती जा रही है। इसे बाजार में निश्चित शुल्क से अधिक धन (Capitationfee) देकर खरीदा जा सकता है। परिणामतः शिक्षा में एक भिन्न प्रकार की जाति प्रथा जन्म ले रही है जो धन के आधार पर छात्र आई.आई.टी. एम.बी.ए. सी.ए. एम.बी.बी.एस आदि उपाधियों के लिये प्रवेश पा कर उच्च भावना से ग्रस्त और धनाभाव के कारण
• प्रवेश से वंचित हीनभावना से ग्रस्त रहते है। दोनो ही श्रेणियों के छात्र भावातिरेक सेग्रस्त है। असमानता की खाई बढ़ रही है। सामाजिक असंतुलन और विषमता इस का ही परिणाम है।
सामाजिक विज्ञान तथा मानविकी विषयों की उपेक्षा करना देश की उन्नति के लिए हानिकारक है और साथ ही इस दृष्टि से शोध को भी दुर्लक्ष करना और भी घातक है। पारम्परिक ज्ञान की ओर ध्यान न देना और शिक्षा को बाजारीकरण की शक्तियों के आधीन करना देश के लिए खतरनाक है।
बाजारवादी नुस्खों में कई निहितार्थ छिपे है। एक तो यह सरकार ने मान लिया है कि देश के सभी बच्चों को शिक्षित करने का काम उसी का नहीं है। शिक्षा को बाजार का उन्मुक्त स्वरूप देने में क्रय-विक्रय की क्षमता रखने वाले छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलेगी। शेष के लिए नहीं।
शिक्षा के अधिकार पर धन और बल का अधिकार रहेगा, भेदभाव बढ़ेगा स्पष्ट है निजीकरण के माध्यम से कभी भी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोचिंग के बाजार में कई घटिया, गैरमान्यता प्राप्त, फर्जी शिक्षा की दुकानें खुलती जा रही हैं। इन सबको रोकना बहुत बड़ी चुनौती है। देश में 125 विश्वविद्यालय हैं इनके 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान है। इन्होंने उच्च शिक्षा को मुनाफे का धन्धा बना दिया है। आन्ध्रप्रदेश में 500 से अधिक निजी इन्जीनियरिंग महाविद्यालय, कर्नाटक में यह संख्या 170 है, उड़ीसा में 81. राजस्थान में 80 है। इस परिदृश्य से जो स्थिति उपस्थित हुई. इस कारण आर्थिक व सामाजिक आधार पर भी शिक्षा विभाजित हुई है। शिक्षा पर मुनाफा कमाने पर रोक, धनवान तथा आर्थिक दृष्टि से पिछड़े सभी छात्रों के लिए अच्छी शिक्षा दिलाने का संकल्प शिक्षा इन सबको स्वीकार करे राजनीति की चेरी बने रहने से इसे छुटकारा मिले देशभक्ति स्वास्थ्य संरक्षण सामाजिक संवदेनशीलता तथा आध्यात्मिक यह शिक्षा के मध्य भवन के चार स्तम्भ हैं इनको राष्ट्रीय शिक्षा की नीति में सम्मिलित घोषित कर, स्वायत्त शिक्षा को संवैधानिक स्वरूप प्रदान करना चाहिए। इन सब उपायों से शिक्षा की चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है। शिक्षा बाजार नहीं अपितु मानव मन को तैयार करने का उदात्त सांचा है। जितनी जल्दी हम इस तथ्य को समझेंगे उतना ही शिक्षा का भला होगा।
शिक्षक व शिक्षा की दुर्दशा
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् ने जिस बेरहमी तथा बेशर्मी से बी.एड महाविद्यालयों को खोलने की स्वीकृति प्रदान की है, वह दुःखद गाथा है। प्रायः सभी महाविद्यालय मापदण्डों की अवहेलना करते है। राजस्थान जैसे राज्य में वर्तमान में 857 बी.एड महाविद्यालय हैं और उनमें 92 हजार विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। यही स्थिति अन्य राज्यों की भी है। अधिकतर महाविद्यालयों में अनुभवहीन प्राचार्य नियुक्त हैं। योग्य प्राध्यापक नहीं, भौतिक तथा मानवीय संसाधनों का अभाव है। प्रायोगिक कार्य, सूक्ष्म शिक्षण, शिक्षण अभ्यास यह सब मजाक है। महाविद्यालय धन कमाने की दुकानें बन गए हैं। महाविद्यालयों में वर्ष में 30 दिन उपस्थित रहकर परीक्षा उत्तीर्ण कर उपाधि प्राप्त कर लेना यह सब दिखाई दे रहा है। शुल्क जमा होना चाहिए "बस" इसी एक नियम को कठोरता से लागू किया जा रहा है। इसके पश्चात और कुछ नहीं। इन शिक्षण संस्थाओं से उपाधिधारी शिक्षकों में विद्यार्थी, विषय, व्यवसाय समाज के प्रति प्रतिबद्धता न होने के कारण आज विद्यालयों में शिक्षा की परिभाषा को दो शब्दों में बन्द कर दिया गया Dumping and Vomiting" ढूंसना और उंडेलना।
शिक्षा का अर्थ है परीक्षा, अंक प्राप्ति प्रतिस्पर्धा तथा व्यवसाय जिन को व्यवसाय नहीं मिलता वह बेकारी की सेना में भर्ती हो रहे हैं।
शिक्षा, शिक्षाकर्मी, ठेके पर रखे शिक्षक, गुरुजी अनेक शब्दों से यह आज विभूषित हैं। परन्तु उन्हें न शिक्षा से प्यार है और न लगाव । 'आचार्य' शब्द शिक्षा के शब्द कोश से निकल सा गया है। गिजुभाई का अध्यापकों के लिए मार्गदर्शन आठ-आठ आँसू बहा रहा है "प्रभु को पाने के लिए बालक की पूजा कीजिए स्वर्ग बालक के सुख में है। स्वर्ग दालक के स्वास्थ्य में है। स्वर्ग बालक की प्रसन्नता में है। स्वर्ग बालक के गाने तथा गुनगुनाने में है।"
राष्ट्रीय अध्यापक परिषद् को सुदृढ़ करना तथा शिक्षक की भाव भूमि तैयार करने की आवश्यकता है। पाठ्यक्रम बारहवी के पश्चात् पांच वर्ष के लिए संशोधित कर ठोस आधार प्रदान करना चाहिए। महाविद्यालयों की मान्यता के लिए कड़ी शर्तों की अनुपालना आवश्यक है। महाविद्यालयों के माध्यम से सेवा कालीन शिक्षण, लघु शिक्षण के पाठ्यक्रम शिक्षण काल में समाज सेवा की अनिवार्यता चाहिए।
दीपक प्रज्जवलित तो बुझे दीपक जला सकेंगे। यही शिक्षक शिक्षा का आधार है।
● मैडिकल विश्वविद्यालयों का बाजार
यह विषय 2001 का है। एस. आर.एम मेडिकल कॉलेज दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल ने इस नकली कॉलेज की पोल खोली थी। यह तो एक उदाहरण है ऐसे अनेक मेडिकल कॉलेज है जिन का देश में व्यापार चल रहा है। दक्षिण भारत में डाक्टरों की उपाधि प्राप्त 90 प्रतिशत एम.बी.बी.एस के छात्र दिल्ली में एनटरसशिप ( Enteranship) करने आते हैं और यहां इनकी पढ़ाई के स्तर की पोल खुल जाती है। दिल्ली में कई प्रतिष्ठित अस्पतालों में भी ऐसे नकली डाक्टर मिल जायेंगे।
सरकारें मरीजों के साथ खिलवाड़ कर रही हैं और नकली डाक्टरों की उपाधियों को मान्यता दी जा रही है। मेडिकल कॉलेज के बाजार का यह काला धन्धा चल रहा है। किराए के मकान में 20 लाख रुपये लेकर 100 विद्यार्थियों को प्रवेश देंगे और यह हो गया मेडिकल कॉलेज? करोड़ों रुपये व्यय कर डिग्री लेने वाले डाक्टरों का पैसा कमाने से सरोकार है बस। सेवा से नहीं।
केतन देसाई मेडिकल कालिजों के बाजार के बेताज बादशाह की भ्रष्टाचार में लिप्तता का जब पर्दाफाश हुआ तो लगा केतन के विशाल हमान में खड़े लोगों का चेहरा देख लें। यह सब भ्रष्टाचार के प्रर्याय बन चुके है।
मेडिकल कांऊसिल आफ इण्डिया को भंग कर कार्य संचालन के लिए समिति का गठन कर दिया गया है इससे समस्या का निदान होने वाला नहीं? मानव संसाधन विकास मंत्री तथा स्वास्थ्य मंत्री की चिकित्सा शिक्षा पर एकाधिकार की जंग चिकित्सा सेवा के लिए करालता भरी चुनौती है। व्यवस्था में भ्रष्टाचार दीमक के समान देश की नींव को खोखला कर रहा है। कठोर कानून बनें, अपराधियों को दण्डित किया जाये। राजनीतिज्ञों के संरक्षण में चल रहा धन्धा बन्द होना चाहिए और राजनीति के धुरन्धर जो इस बाजार के काले धन्धे में लिप्त हैं उन्हें भी सलाखों के पीछे करने से उदाहरण प्रस्तुत होगें।
अखिल भारतीय कांग्रेस डाक्टर मंच (Medicial Cell) का कहना है कि संसधान मन्त्रालय मैडिकल शिक्षा का संचालन कैसे कर सकता है ? गुलाम नबी आजाद स्वास्थ्य मंत्री ने अपने कथन में स्पष्ट किया है स्वास्थ्य शिक्षा का किसी दूसरे मन्त्रालय को सौंपने का प्रश्न ही नहीं उठता। श्री कपिल सिब्बल उच्च तथा तकनीकी शिक्षा के विभागों के संचालन तथा प्रबन्धन के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था का गठन करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। दोनों मंत्रालयों का मतभेद और मेडिकल शिक्षा पर अपने वर्चस्व स्थापित करने की होड़ से पहले से ही चिकित्सा की निराशाजनक स्थिति बिगड़ती नजर आती है। संघर्ष से सुधार नहीं होगा यह निश्चित है।
उच्चतम न्यायालय की मेडिकल कालिज तथा दन्त चिकित्सा शिक्षण संस्थाओं पर की गई आक्रोश भरी टिप्पणी शिक्षा के इस पक्ष की यथार्थ नग्नता को देश के सम्मुख ला रही है। ऐसा प्रतीत होता कि इस व्यवसाय के प्राध्यापक भगवान कृष्ण के समान सर्वव्यापी हैं। राजस्थान में वही प्राध्यापक हैं जो हरियाणा में भी पढ़ाते हैं। न्यायधीश जी.सी. सिन्धवी तथा श्री सी. के. प्रसाद इस बात पर बहुत हैरान थे मूलभूत संसाधनों तथा प्रशिक्षित योग्य प्राध्यापकों के बिना मेडिकल कॉलिज कैसे चल रहे हैं? अथवा उनके स्थापित करने पर विचार किया जा रहा है" मेडिकल चिकित्सा में भ्रष्टाचार का यह एक ज्वलन्त उदाहरण है।
देश के करीब अस्सी प्रतिशत तक मेडिकल कॉलेज महाराष्ट्र से लेकर केरल, कर्नाटक,
• तमिलनाडु आन्ध्रप्रदेश में हैं और शेष भाग में मात्र 20 प्रतिशत हैं। इस असंतुलन को भी बदलने की आवश्यकता है। सेवा के इस क्षेत्र को सेवा भाव से देखिए और सवारिये।
अल्पसंख्यक तुष्टीकरण - विकृत खेल
केन्द्र सरकार भारत में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का एक विघटनकारी खेल खेल रही है। राज्य सरकारों ने इसका अनुसरण किया है। रोजगार में मुसलमानों के आरक्षण के प्रतिशत में वृद्धि की जा रही है। आन्ध्र प्रदेश द्वारा शिक्षा और रोजगार में 4 प्रतिशत और बंगाल सरकार ने 10 प्रतिशत के आरक्षण की घोषणा की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने देश में पांच मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा के प्रसार के लिए मुल्लापुरम (केरल) पश्चिम बंगाल में मुर्शिदाबाद, बिहार के किशनगंज महाराष्ट्र के पूना एवं मध्यप्रदेश के नोपाल में इन पांच केन्द्रों में अपने परिसर खोलने की योजना को क्रियान्वित करना प्रारम्भ कर दिया है। इन विश्वविद्यालयों के अधिकारियों के नाम अरबी भाषा में है शुभन्कर (Laga) में इस्लामिक धर्मिक प्रतीकों जैसे कुरान और नव चन्द्रमा को दर्शाया गया है। धर्माधारित आरक्षण न केवल अवैधानिक है अपितु देश को अन्य विभाजन की ओर भी धकेलने का खतरनाक कदम है।
अब समय आ गया है कि शिक्षा की इस विभेदकारी नीति का चारों ओर से विरोध होना चाहिए। पूजा पद्धति के तथा वोट बैंक की नीति के आधार पर अल्पसंख्यकवाद की तुष्टीकरण का यह घिनौना खेल तुरन्त बन्द होना चाहिए।
विदेशी संस्थाओं का आकर्षण
अमरीकी इन्वेस्टमेंट कंसलेटेन्ट राबेट लिटले भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों को अपना कैम्पस खोलने की एडी चोटी का जोर लगा रहे हैं। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में धन्धा कमाने के अवसर ढूंढ़ने के प्रयास केवल लिटले ही नहीं और भी बहुत सी कम्पनियाँ कर रही है।
अमरीका व यूरोपीय शिक्षा माफियाओं व बैंको की गिद्ध दृष्टि भारत के शिक्षा क्षेत्र पर है। अमरीका भक्त मनमोहन सिंह मोटेक, सेम पित्रौदा, कपिल सिब्बल यह चौकड़ी शिक्षा को विदेशी जाल तथा चाल में फंसाने को आतुर दिखाई देती है। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में स्थान पाने का अब तो कानून भी बन गया है।
विदेशी विश्वविद्यालयों से भारत की संस्कृति पर प्रहार की सम्भावना स्पष्ट दिखाई देती है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारत में आने से परिणाम के लिये कहा गया था "Trade Follows Flag" व्यापर के बाद राज्य भी आता है। शिक्षा में पाश्चात्य संस्कृति से युवक अपनी सांस्कृतिक विरासत (उनका अभी भी इससे कुछ लेना देना नहीं है) को बिल्कुल ही भूल जाएगा और पाश्चात्य के रंग में रंग जाएगा जो देश अपनी संस्कृति को भूल जाता है उसमें जीवन्तता समाप्त हो जाती है। Maxmular मैक्समूलर ने लिखा था "We have conqured India once we shall conquer it again through Education" हम शिक्षा के माध्यम से भारत पर दोबार जीत प्राप्त करेंगें पाश्चात्य विश्वविद्यालयों की स्थापना सांस्कृतिक विजय की ओर बढ़ता हुआ एक कदम दिखाई देता है। पाश्चात्य विश्वविद्यालयों में प्रतिभाशाली विद्यार्थी प्रवेश लेने के लिए उत्सुक होंगे और इन विश्वविद्यालयों में वेतनमान बेहतर होने के कारण देश के विश्वविद्यालयों से विद्यार्थियों और आध्यापकों की प्रतिभा का पालयन होगा पहले से भारत में स्थापित विश्वविद्यालयों के अस्तित्व के लिए संघर्ष करना होगा। समतल भूमि पर समान सुविधाओं से यह मुकाबला नहीं अपितु असमान्य साधनों का सामान्य साधनों से मुकाबला होगा।
● शिक्षा के लिए आयोग और उनके संस्तुतियों की स्थिति
यदि किसी एक विषय पर सबसे अधिक आयोग बने हैं तो वह शिक्षा है। सबने मूल्यवान सुझाव दिए थे परन्तु उनका क्या हुआ? लगता है वह सभी सिफारिशें उस अलमारी में बन्द कर के रख दी गई हैं जिनको दीमक न लगे। सम्भवतः यह इसलिए सुरक्षित है कि कोई भी शोधार्थी शोध कर यह बता सके कि कि अब तक इन संस्तुतियों पर कितना धन व्यय हुआ और उसके परिणाम क्या निकले? परिणाम कुछ भी नहीं निकला। स्थिति बद से बदतर होती चली गई। सबने एक स्वर से सिफारिश की शिक्षा का उद्देश्य बालक का सर्वागींण विकास होना चाहिए अर्थात शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा आत्मा का विकास और समग्र विकास के लिये विद्यार्थी को सप्तपदी यात्रा के लिए तैयार करना चाहिए व्यक्ति परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व, जङ- चेतना तथा परमेष्टि यह सात कदम है। शिक्षार्थी को सम्मल- सम्भल कर पग बढ़ाने, अन्तिम चरण परमेष्टि तक ले जाने के लिए। गांधी जी ने शिक्षा के उद्देश्य का सरलीकरण करते हुए कहा है
"The aim of education is development of Head Heart and Hand अर्थात दिल, दिमाग और हाथ की शिक्षा कथित उदात्त परिभाषाओं को दुर्लक्ष्य कर हमारी सोच एकागी हो गई है। बौद्धिक लब्धि की और ही शिक्षा का झुकाव है। अधिक से अधिक अंक प्राप्त कराने में अध्य अपने पाठन कौशल की इतिश्री मानते है बौद्धिकलब्धता व्यक्ति को अहमवादी तथा तर्कशील बनाती है। मस्तिष्क बायें भाग से काम करता है। डेनियल गोलमेन के अनुसार भावना बौद्धिक लब्धि की सहचरी है अतः कहा गया है। "Start from the left and go to the right" मस्तिक के दोनों भागों को सक्रिय बनाने की आवश्यकता है भावनाओं को संतुलित रखना और सामाजिक दक्षता के स्तर तक पहुँचाने चित्तवृत्तियों का निरोध, एकाग्रचित्ता, कर्मकौशल के लिये यौगिक साधना करनी होगी, इसे हम आध्यात्मिकता कहते हैं।
बौद्धिक, भावात्मक तथा आध्यात्मिक इन तीन उपलब्धियों के परिणाम स्वरुप शिक्षा तथा जीवन के लक्ष्य तक हम पहुँच पायेंगे, अन्यथा नहीं। ज्ञान, भावना और क्रिया के संगम पर शिक्षा तीर्थराज प्रयाग बनती है।
शिक्षा अखण्ड मण्डलाकार है। अब तो जीवन निर्मित हो रहे है। ज्ञान मिन्न-क्रिया कुछ और इच्छा क्यों हो पूरी मन की एक दूसरे से न मिल सकें। तो विडम्बना है जीवन की ।।
खण्डित तथा विडम्बना पूर्ण
स्थिति को बदलना एक बड़ी चुनौती है। पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, आचार्य विद्यार्थी, अभिभावक समाज में एकात्म तत्व के दर्शन करते हुए दृष्टिकोण को बदलना होगा। पाठन विषय पृथक होंगे परन्तु उनमें भारतीयकरण तथा आध्यात्मीकरण की मुख्यधारा एक है। यही शिक्षा का अखण्ड मण्डलाकार स्वरूप है। इस शिक्षा से एकात्म मानव का विकास होगा। यह विकास समग्र विश्व के हित के लिये मार्ग प्रशस्त करेगा शिक्षा परिवर्तन के लिये चुनौतियों का अवसर मान इसे राष्ट्रीय मुद्धा स्वीकार सब को सृजनात्मक सहयोग देना चाहिए। शिक्षा पर नियंत्रक व्यवस्थाएँ शिक्षा को नियंत्रित करने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्री अनेक प्रकार की व्यवस्थाएँ कर रहे हैं। अधिनियम बन रहे हैं। माध्यमिक शिक्षा मण्डल विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी परिषद् कानून भी बने हैं। बच्चों को निःशुल्क शिक्षा, विदेशी
विश्वविद्यालयों की भारत में स्थापना, कैपीटेशन फीस पर पाबन्दी इत्यादि आचार्य काका कालेकर ने शिक्षा की आत्मकथा में कहा है।
"मैं सत्ता की दासी नहीं हूँ। कानून की किकरी नहीं हूँ। विज्ञान की सखी नहीं अर्थशास्त्र की बांदी नहीं हूँ। मैं तो धर्म का पुनरागमन हूँ। मानस शास्त्र और समाजशास्त्र मेरे दो चरण है। कला और कारीगरी मेरे हाथ हैं। विज्ञान मेरा मस्तिष्क है, धर्म मेरा हृदय हैं। निरीक्षण और तर्क मेरी आंखे हैं इतिहास मेरे कान हैं स्वातंत्र्य मेरे श्वास है उत्साह और उद्योग मेरे फेफड़े हैं। धैर्य मेरा व्रत है। श्रद्धा मेरा चैतन्य है ऐसी मैं जगदम्बा हूँ जगद्धात्री हूँ। मेरा उपासक कभी किसी का मोहताज नहीं रहेगा उसकी सभी कामनाएं मेरी कृपा से तृप्त होंगी।"
आपने सुनी यह आत्मकथा शिक्षा को बन्धन, नियंत्रण, दासता स्वीकार नहीं शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए जैसे प्राचीन काल में थी। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में शिक्षा के लिए एक स्वायत्त आयोग बने जो मातृशिक्षा से जीवन प्रयन्त की शिक्षा के सम्बन्ध में चिन्तन और आचरण करें। शिक्षा आई.सी.एस अधिकारियों के आधीन नहीं अपितु शिक्षाविदो के मार्गदर्शन में चले चुनाव आयोग अथवा उच्चतम न्यायालय के नमूने पर इस आयोग को वैधानिक दर्जा प्राप्त हो। अखिल भारतीय प्रशासकीय सेवाओं की परीक्षा में शिक्षा विषय को सम्मिलित कर अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले युवकों को शिक्षा के प्रबन्धन का कार्य सौपा जाए। शिक्षा को स्वछन्द नहीं स्वायत बनाना होगा। समाज प्रबोधन, शिक्षाविदों की सामूहिक बुद्धिमता शिक्षा क्षेत्र में कार्य करने वाले संगठनों के सार्थक प्रयासों से यह सम्भव हो सकता है और निश्चय ही यह होगा। शिक्षा की चुनौतियों को स्वीकार करने का यही एक असरकारी तरीका है।