शिक्षा में राष्ट्रीयता
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शिक्षा में राष्ट्रीयता
किसी भी राष्ट्र की उन्नति में वहां की शिक्षा-व्यवस्था की महती भूमिका होती है। शिक्षा किसी भी देश को संस्कारित करने का काम करती है। इसका स्पष्ट प्रभाव समाज, संस्कृति, राजनीति एवं अर्थ-व्यवस्था पर परिलक्षित होता है। इसीलिए यदि देश का नव-निर्माण करना है तो सबसे पहले वहां की शिक्षा-व्यवस्था को सशक्त, समर्थ एवं राष्ट्र अनुकूल बनाने की आवश्यकता होती है। यूनेस्कों की डेलर्स कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार- किसी भी देश की शिक्षा का स्वरूप उस देश की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होना चाहिए। शिक्षा-जगत के लिए यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण रिपोर्ट है, जिसके अध्ययन के उपरांत इस संदर्भ में हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि ‘‘देश को बदलना है तो शिक्षा को बदलो।’’
‘‘राष्ट्र’’ केवल जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं होता है, बल्कि इसका निर्माण एक निश्चित भू-भाग, वहां की जनसंख्या तथा उसकी संस्कृति से मिलकर होता है। ऐसे में कहना न होगा कि राष्ट्र के लिए भू-भाग, जन एवं संस्कृति के साथ-साथ अपनी संप्रभुता भी अनिवार्य होती है। जहां तक भारतवर्ष के संदर्भ में यदि कहा जाए तो यहां सांस्कृतिक एकत्व की एक मजबूत डोर है, जिसके माध्यम से अखिल भारतवर्ष की समस्त संस्कृतियों एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़ी हुई हैं। कही-न-कही इसी एकत्व में भारत की राष्ट्रीयता का बीज-तत्व भी निहित है।
अब प्रश्न उठता है कि शिक्षा क्या हे? हमारे यहां छह वेदांग बताए गए है- शिक्षा, कल्प, नियुक्त, व्याकरण, छंद एवं ज्योतिष। इनमें से शिक्षा को एक महत्वपूर्ण वेदांग माना गया है। हालांकि यहां शिक्षा का अर्थ उच्चारण विज्ञान एवं श्रुति माधुर्य से है। परंतु, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक समय तक हमारी मनीष परंपरा ने शिक्षा की अपनी स्पष्ट भारतीय संकल्पना प्रस्तुत की है। इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद जी के विचार बड़े ही प्रासंगिक है। उनका मानना है कि ‘मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।’’ स्वामी जी कहते है कि ‘‘एक बालक स्वयं सीखता है, यदि कोई सोचता है कि वह किसी को सिखाता है तो उसके समान कोई मूर्ख नहीं है। स्वामी जी के चरित्र - निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास को ही शिक्षा का लक्ष्य मानते हैं। स्वामी जी का माना है कि शिक्षा सिर्फ सिखाने की प्रक्रिया नहीं है, बल्कि वह स्वयं सीखने की भी प्रक्रिया है।
भारतीय मनीष परंपरा में शिक्षा के संदर्भ में कहा गया है कि ‘‘सा विद्या या विमुक्तये’’ अर्थात विद्या या शिक्षा हमें अपनी जड़ताओं से मुक्त कर लघु से वृहत की ओर उन्मुख करती है। वास्तव में शिक्षा मनुष्य के चरित्र - निर्माण के द्वारा उसके व्यक्तित्व के समग्र विकास का ही काम करती है। चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व का समग्र विकास दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू है। मूल्य विहीन शिक्षा का कोई औचित्य नहीं है। मूल्यवान एवं संस्कारयुक्त शिक्षा के द्वारा ही एक समर्थ राष्ट्र की आधरशिला रखी जा सकती है।
शिक्षा-व्यवस्था में राष्ट्रीयत का समावेश नहीं होने के कारण ही राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रकार की विसंगतियाँ देखी जा सकती है। सैकड़ों वर्षो तक हम पराधीन रहे है। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज पराधीनता की छाया को झेलने के लिए विवश है। परंतु, इसके लिए हमारी अपनी इच्छा - शक्ति का शिथिल पड़ जाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जिसके कारण हम राजनीति रूप से तो स्वतंत्र हो गए परंतु सांस्कृतिक रूप से आज भी औपनिवेशिक कुडे को ढ़ो रहे है। यही कारण है कि मैकॉले शिक्षा-नीति को बारम्बार कोसने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं दिखता है जबकि सच तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा में राष्ट्रीयता के समावेश हेतु कोई ठोस प्रयास दृष्टिगोचार नहीं होता है।
शिक्षा में राष्ट्रीयता का समावेश हो इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है- पाठ्यक्रम में बदलाव। यह एक बुनियादी कार्य है, जिसके बिना कोई भी पहल अपूर्ण होगी। सर्वप्रथम पाठ्यक्रम का पुन-निर्माण करते वक्त इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि उसमें पहले से पढ़ाई जा रहे तमाम अराष्ट्रीय सामग्रियों को हटाया जाना चाहिए। इतिहास, साहित्य, सामाजिक विज्ञान आदि के पाठ्यक्रमों में तमाम विसंगतियों देखी गई है, जो न केवल अनुपपयोगी एवं औचित्य-विहीन है बल्कि राष्ट्रीयता के भाव को नष्ट कर अंततः राष्ट्र को ही नुकसान पहुचाने वाली हैं। इसलिए यह आवश्यकत है कि राष्ट्र की संकल्पना पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। कई उदाहरणों के माध्यम से इस वैकल्पिक पाठ्यक्रमों को समझा जा सकता है। भूगोल में वृहत-सांस्कृतिक भारत का मानचित्रा पर प्रकाश डाला जाए। इतिहास एवं संस्कृति के पाठ्यक्रम में भी हमें उन महापुरूषों के योगदान को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए जिन्होंने इस राष्ट्र के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाई है। अभी तो दुर्भाग्य यह है कि सरकारी संस्थानों से प्रकाशित होने वाली इतिहास की पुस्तकों में भारतीयता स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल क्रांतिकारी महापुरूषों को ‘‘आतंकवादी’’ तक लिखा गया है।
इसी प्रकार गणित एवं विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी भारतीय ज्ञान परंपरा के इतिहास का समावेश होना चाहिए। गणित में आर्यभट्, रामानुजन, भास्कराचार्य से लेकर शून्य एवं दशमलव पद्धति के विकास में भारतीय गणितज्ञों के महत्व को समावेशित करना चाहिए। विज्ञान में भी महर्षि चरक, सुश्रुत, पंतजलि, आदि के साथ-साथ अन्य आधुनिक भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। पर्यावरण आदि विषयों के पाठ्यक्रमों में भी भारतीय दृष्टिकोण का समावेश उपयोगी है।
पाठ्यक्रम के बाद शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है - शिक्षा के माध्यमों की। यह बड़ा ही महत्वपुर्ण प्रश्न है कि आखिर शिक्षा को किस भाषा में संप्रेषित की जाए। इसके संदर्भ में मेरा स्पष्ट मानना है कि ‘‘माँ, मातृभूमि एवं मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है।’’ दुनिया भर में होने वाले भाषा- सम्बन्ध शोधें के परिणाम से यह तथ्य स्पष्ट हो चुका है कि मातृभाषा ही शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक माध्यम है। अतः भारतीय पाठ्यक्रमों का निर्माण करने के उपरांत उन्हे संप्रेषित करने के लिए भारतीय भाषाओं का ही व्यवहार होना चाहिए। संस्कृत हमारे देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की प्राचीनतम भाषा है। यह सर्वाधिक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ भारत की अघिकांश भाषाओं की जननी है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें एक विशाल ज्ञान राशि संचित है। इसके अलावा हिन्दी इस देश की संपर्क भाषा है जो सही अर्थो में राष्ट्रभाषा भी है। साथ-ही-साथ प्रत्येक प्रांतों में वहां की अपनी - अपनी राजभाषाएं हैं। ये सभी भारतीय भाषाए यहां की मातृभाषाए है। अतः वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीयता दोनों ही बातों ध्यान में रखते हुए शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाना चाहिए।
शिक्षा - व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की दिशा में वातावरण की भूमिका भी बड़े महत्व की होती है। हमारा परिवेश जैसा होगा हमारा भौतिक एवं मानसिक संस्कार भी ठीक उसी के अनुरूप होगा। इसलिए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में सह-शैक्षिक गतिविध्यिों के माध्यम से एन.सी.सी. एन.एस.एस., सैन्य शिक्षा आदि को प्रोत्साहित कर एक राष्ट्रोन्मुखी वातावरण का सृजन करना चाहिए। भारतीय जीवन-दृष्टि को वातावरण के माध्यम से प्रतिबिंबित करने का प्रयास करना चाहिए। वातावरण निर्माण की दिशा में अनुशासन की सर्वाधिक भूमिका होती है। कहा जाता है कि ‘अनुशासन देशः महान भवति’’ अर्थात अनुशासन ही राष्ट्र को महान बनाता है। इसलिए समय-पालन, कानून-पालन, एवं नियम-पालन का सर्वाधिक ध्यान रखते हुए वातावरण को सृजित करना चाहिए। इस अनुशासन की सही तरीके से व्यवहार में लाने हेतु नैतिक शिक्षा एवं मूल्यपरक शिक्षा की अनिवार्यता होती है।
शिक्षा-संस्थानों का वातावरण पूर्णतः स्वदेशी के संस्कार से सृजित होना चाहिए, जहां स्वभाषा, स्वभूषा एवं स्व-रीति का अनुपालन हो। इन संस्थानों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता उत्पन्न करने हेतु प्राकृतिक वातावरण एवं सजगता का ध्यान रखना चाहिए। वातावरण पूर्णतः व्यसन-मुक्त हो, इसका ख्याल रखना चाहिए। शैक्षणिक-संस्थानों का वातावरण इस प्रकार होना चाहिए जहां राष्ट्रभक्ति का संस्कार विकसित हो सके। देव संस्कृति विश्वविद्यालय ;हरिद्वार, उज्जैन का सरकारी बी.एड़, कालेज जैसे संस्थानों में वहां की दीवारों में कई प्रकार के महत्वपूर्ण उक्तियाँ लिखी गई हैं, जो समाज, राष्ट्र एवं पर्यावरण एवं मानवता के लिए एक सकारात्मक संदेश देती हैं। इस प्रकार का प्रयास अन्य संस्थानों में भी हो तो एक श्रेष्ठ कार्य होगा।
शिक्षा-व्यवस्था में शिक्षकों की भूमिका केवल मार्गदर्शक एवं रचनाकार की नहीं होती है। वह स्वयं का भी परिष्कार करते हुए सिर्फ दूसरों को ही गढ़ने का का नहीं करता है, बल्कि स्वयं को भी गढ़ता है। इस प्रकार शिक्षक की भूमिका सीखने और सिखाने दोनों की होनी चाहिए। एक आदर्श शिक्षक अपने आचरण एवं व्यवहार से ही सिखाने का भी काम करता है। वह अपने आचरणों के द्वारा शिक्षार्थियों के संस्कार को गढ़ने का काम करता है। इसलिए एक शिक्षक की आचार्य बनने की ओर सदैव उन्मुख रहना चाहिए और यह अपने चरित्र-निर्माण एवं व्यक्तित्व के द्वारा ही एक शिक्षक कर सकता है। जब तक एक शिक्षक मे आत्मीय भाव का विकास नहीं होगा और वह अपने कार्य को एक आध्यात्मिक कार्य नहीं मानेगा तब तक शिक्षा-व्यवस्था की एक फांक हमेशा बनी रहेगी और इसमें राष्ट्रीयता के समावेश का स्वप्न एक कल्पना ही बनी रहेगी। इसलिए एक शिक्षक को ‘टीचर’ बनने का मार्ग न चुनकर ‘आचार्य’ बनने की ओर अग्रसर होना चाहिए। यही शिक्षा के हित में भी है ओर समाज एवं राष्ट्र के हित में भी है।
अंततः मेरा स्पष्ट मानना है कि शिक्षा में राष्ट्रीयता परिलक्षित हो, इसके लिए सरकारी शैक्षणिक संस्थानों के स्तर में सुधार की नितांत आवश्यकता है। सरकारी शैक्षिक संस्थानों के स्तर में सुधार के द्वारा ही व्यापक स्तर पर शैक्षणिक बदलाव संभव है। क्योंकि इनका फलक व्यापक एवं देशव्यापी है। अंततः हमारा मानना है कि पाठ्यक्रम-निर्माण से लेकर वातावरण-निर्माण तक में राष्ट्रीय पहलुओं को यथा-स्थान समावेशित करके ही शिक्षा में राष्ट्रीयता की संकल्पना की मूर्त रूप दिया जा सकता है।