संविधान का पालन और राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रगान तथा राज्य भाषा का आदर

हम बार-बार इस बात को कहते हैं कि संविधान के प्रति हमें आदर करना चाहिए और मूल कर्तव्यों में सबसे पहला...

संविधान के अनुच्छेद 51 क में यह प्रथम मूल कर्तव्य निम्नलिखित रूप में कथित

"संविधान का पालन करना और इसके आदर्शों तथा संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज तथा राष्ट्रगान का आदर करना नागरिकों का प्रथम कर्तव्य है। इस कर्तव्य की व्याख्या करने के पूर्व यह समीचीन प्रतीत होता है कि यह उल्लेख कर दिया जाए कि संसद में कुछ सदस्यों द्वारा उक्त कर्तव्य में राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान के साथ राष्ट्रभाषा अर्थात हिन्दी को भी रखने का प्रस्ताव रखा गया था और इसके लिए सब तर्क उपस्थित किए गए थे। इनमें से कुछ यहाँ उल्लेख करना सुसंगत होगा।

राष्ट्रध्वज और राष्ट्रभाषा को जोड़े जाने का संशोधन पेश करते हुए लोकसभा के सदस्य श्री शंकर दयाल सिंह ने कहा

"हमारे कानून मंत्री गोखले जी ने जो मूल कर्तव्य यहां जोड़े हैं उनमें पहला क्या है? संविधान का पालन और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे में बड़े ही अदब के साथ कहना चाहता हूँ कि जहाँ आप ने राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान की बात कही है वहीं आप को राष्ट्र भाषा की बात भी करनी चाहिए। आपने नेशनल ऐंथम कहा, उसके साथ-साथ नेशनल फ्लैग कहा तो नेशनल लैंग्वेज को नहीं रखा जब कि भारत का संविधान, अनुच्छेद 343 में यह कहता है कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। यह मैं नहीं कह रहा हूँ। यह तो संविधान में दिया हुआ है। या तो इस को डिलीट कर दीजिए और अगर इस को नहीं रख रहे हैं तो मूल कर्तव्यों में आप को इसे भी जोड़ना बहुत आवश्यक है।

मुझे बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ता है कि कल जब फ्रैंक एंथोनी साहब बोल रहे थे, आज वह यहां है नहीं, लेकिन वह इस सदन के एक सदस्य हैं, जब वह बोल रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि हाउस ऑफ लॉडर्स या हाउस ऑफ कॉमन्स सदस्य बाले रहा हो। अंग्रेजी की एक विदेशी भाषा की कोई वकालत करे और भारतीय भाषाओं को उपेक्षा की दृष्टि से देखें यह किसी को सहन नहीं होगा। हम मानते है कि भारत की सभी भाषाएं फले-फूले चाहे वह उड़िया हो, मलयालम हो या तेलगू हो, सब को स्थान मिलना चाहिए और हिन्दी को भी मिलना चाहिए। लेकिन एक विदेशी भाषा की जब हम वकालत करते हैं तो मुझे ऐसा लगता है कि जिस व्यक्ति ने इसकी वकालत की उस का दिमाग अभी भी साफ नहीं है और अभी वह उसी रूप में सोचता है। इसलिए मैं यह कहना चाहता हूँ कि एक जो यह साजिश चल रही है कि एट्थ शेड्यूल में अंग्रेजी को भी हम रख दें यह कभी नहीं होना चाहिए। इससे हमारा संविधान अपमानित हो जाएगा।

एक बात मैं और विनीत स्वर से कहना चाहता हूँ कि संविधान की धारा 343 और 351 में हिन्दी और देवनागरी को एक स्थान दिया गया है लेकिन कार्य रूप में उसका पालन कभी नहीं होता है। हमने हिन्दी को राजभाषा मान लिया और देवनागरी को लिपि मान लिया लेकिन जब तक उसका व्यवहार सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों की ओर से नहीं होगा तब तक नीचे के स्तर पर कैसे हो सकता है? जब आप संविधान बनाते हैं तो जब संविधान के नियमों की रक्षा आप और हम करेंगे तभी सामान्य जनता भी करेगी। मैं कहना चाहता हूँ कि बुद्धिजीवी ही सभी चीजों के ठेकेदार नहीं है। जो सामान्य आदमी है, वहीं सामान्य आदमियों की समस्यों को समझता है जो बुद्धिजीवी होते हैं वे जटिलता पैदा करते है जिससे गरीब आदमियों की उपेक्षा होती है। अभी हमारे विभूति मिश्र जी बड़े दर्द के साथ बोले, हरि सिंह जी भी दर्द के साथ बाले रहे थे और हमारे श्री राम गोपालन रेड्डी भी उस दर्द के साथ बोलने वाले हैं। हमारा कहना यह है कि गरीबों के लिए आपने इसमें जो चीजें रखी है, उनकी जानकारी भी उनको पहुँचानी चाहिए, इसके लिए अधिक से अधिक व्यवसायिक होनी चाहिए।

सभापति जी एक बात की ओर मैं जरूर इस वक्त आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ। जब यह संविधान पारित हुआ था, उस समय यह तय हुआ था कि 15 वर्षों के बाद अंग्रेजी का स्थान गौण हो जाएगा और हिन्दी की प्रधानता हो जाएगी। लेकिन ऐसा न हो सका। उसके बाद 1963 में एक कानून पास हुआ, कायदा यह है कि जो भी कानून पास होता है, उसके चार छ महीने के अन्दर उसके रूल्स बन जाया करते हैं, परन्तु वे रूल्स भी नहीं बन सकें। लेकिन एक खुशी की बात यह हुई कि जिस दिन इस देश में एमरजेन्सी कायम हुई यानी 26 जून, 1975 को उस दिन एक नये विभाग की रचना हमारी प्रधानमंत्री जी ने की एक राजभाषा विभाग अलग से बनाया गया और यह भी एक खुशी की बात है कि 28 जून, 1976 को रूल्स बन गए 12 रूल्स बने जो 17 जुलाई को गजट में प्रकाशित हुए और उसी दिन से लागू हो गए। अब मैं यह कहना चाहता हूँ कि ये रूल्स हमारे सामने आ गए हैं जिस तरह से आप अन्य कानूनों का एन्फोर्स करते हैं, उसी तरह से भाषा के संबंध में हिन्दी के संबंध में अन्य भारतीय भाषाओं के संबंध में जो कानून और नियम बने है, उनको दृढ़ता के साथ, सजगता के साथ लागू कीजिए, उनका पालन कीजिए।"

• अगले दिन की कार्यवाही में माननीय सदस्य ने आगे कहा

हम बार-बार इस बात को कहते हैं कि संविधान के प्रति हमें आदर करना चाहिए और मूल कर्तव्यों में सबसे पहला कर्तव्य यही है कि संविधान के प्रति आदर और सम्मान रहे। अब सभापति जी हमारे संविधान में कहा गया है कि राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है, लेकिन इसी सदन में दो दिन पहले एक माननीय सदस्य ने जो हम लोगों की तरह से चुन कर नहीं आए हैं, जिनको हम लोगों की तरह से दस लाख जनता का सामना नहीं करना पड़ा है, नॉमिनेट होकर यहां आए हैं- अंग्रेजी की बदौलत उन्होंने जिस तरह से चुन-चुन कर भारतीय भाषाओं को हिन्दी को गालियां दी, क्या यह संविधान का अपमान नहीं हुआ। 

उसी क्रम में माननीय सदस्य ने पुनः अगले दिन कहा :

"मूल कर्तव्यों की सूची को देख कर मुझे बड़ा ताज्जुब निराशा और दुःख हुआ और उससे भी बढ़कर चिन्ता हुई 51क(क) में कहा गया है संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।" यह बिल्कूल ठीक है। कोई राष्ट्र तब तक राष्ट्र नहीं कहा जा सकता जब तक वह अपने राष्ट्र ध्वज और राष्ट्र-गीत का सम्मान न करें। लेकिन उसके साथ ही कोई भी राष्ट्र तब तक राष्ट्र नहीं कहा जा सकता है, जब तक उसकी अपनी राष्ट्रभाषा न हों।

हमारी राष्ट्रभाषा है, जिसे संविधान में राजभाषा कहा गया है। वह राजभाषा हिन्दी मानी गई है। संविधान सभा ने इस विषय पर बड़ी गंभीरता के साथ विचार किया था। हमारे पूज्य नेता पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 13 सितम्बर, 1949 को संविधान सभा में कहा था :

"But, at the same time, it created a great gulf between us, who knew Hindi and those

who did not know Hindi, and that was a fetter for the progress of the nation. That is a thing

which certainly we cannot possibly tolerate, and hence this problem."

उसके बाद संविधान सभा ने यह निर्णय किया था कि देश की राजभाषा, (Official Lanaguage) हिन्दी होगी, क्योंकि कन्याकुमारी से लेकर कशमीर तक लोग हिन्दी समझते हैं, बोलते हैं और कुछ लिखना पढ़ना भी जानते हैं और इसलिए हिन्दी में ही राजभाषा बनने की सामर्थ्य है।

इसलिए मैंने यह संशोधन पेश किया है कि राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान के साथ-साथ राजभाषा का सम्मान करने की भी बात मूल कर्तव्यों में सम्मिलित की जाए। जब हम कहते हैं कि संविधान का पालन करना चाहिए और उसके आदर्शों तथा संस्थाओं का आदर करना चाहिए, तो संविधान में लिखा हुआ है कि हिन्दी हमारी राजभाषा और देवनागरी हमारी लिपि है।

हिन्दी के संबंध में जब कुछ लोग बेतुकी बातें कहते हैं, तो बड़ा आश्चर्य होता है कि हम कैसे उसको सहन कर लेते हैं। हिन्दी के विरूद्ध इस सदन में एक-आधा राजनैतिक पार्टियों ने कहा है, या एक-आध ऐसे लोगों ने कहा है, जो नॉमिनेटिड हैं, जिनके पूर्वजों ने चाहा था कि हम अपनी भाषा को एक विदेशी भाषा को हिन्दुस्तान पर लाद दें, और वे उनकी वकालत करते रहे है।

बिना राष्ट्र भाषा के राष्ट्र गूंगा होता है। गधी जी की आत्मा आज यह देखकर दुःखी हो रही होगी के इस देश में और सब कुछ तो किया गया लेकिन राष्ट्रभाषा की उपेक्षा की गई है। मैं स्पष्ट शब्दों में कहना चाहता हूँ कि हम अपने देश की सभी चौदह भाषाओं का आदर करते हैं और वे सब हमारी राष्ट्रीय भाषाएं है। हमारा झगड़ा और तकरार तो अंग्रेजी भाषा के साथ है एक विदेशी भाषा के साथ है, जो गुलामी की प्रतीक है। अंग्रेज चले गए, लेकिन वे हमारे माथे पर इतना बड़ा कलंक का टीका लगाकर गए हैं कि जब तक हम उसे पोंछ नहीं लेते हैं, तब तक हमारा राष्ट्र बिल्कुल निष्कलंक नहीं हो सकता है।

मैं विधि मंत्री से यह अनुरोध करना चाहता हूँ कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह मेरा व्यक्तिगत निवेदन नहीं है, बल्कि वह इस देश के करोड़ो लोगों की भावना है, जो मैं उन तक पहुँचा रहा हूँ। हाल ही में मॉरीशस में विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ और उसके बाद प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी, वहां गांधी संस्थान का उद्घाटन करने के लिए गई थी जो विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ उसमें 33 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया उनको यह सुन कर बड़ा आश्चर्य होता था कि हिन्दुस्तान में अभी भी अंग्रेजी चल रही है और इससे भी दुःख की बात यह हैं कि पार्लियामेंट के हम तीन चार सौ सदस्यों ने प्रधानमंत्री जी को एक ज्ञापन दिया कि यू.एन. में हिन्दी को स्थान मिलना चाहिए इसलिए कि विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या तीसरे नंबर पर है। लेकिन दुःख की बात यह है कि वे लोग चाहते हैं कि हिन्दी न हो जो यह जानते है कि हिन्दी होगी तो हम किस मुंह से वहां जाएंगे, ऐसे अधिकारी इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि हिन्दी अगर हो गई तो हमारी तो रोजी रोटी चली जाएगी। वे समझ रहे हैं कि वे हिन्दुस्तान की ओर से जाए और हिन्दी ही न जाने तो कैसे काम चलेगा। इसलिए मैं भारत की जनता की ओर से मंत्री महोदय से यह प्रार्थना करता हूँ कि संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज के पश्चात राष्ट्र भाषा और राष्ट्र गान का आदर करे इस प्रकार से इसमें संशोधन कर दिया जाए। 

अंत मैं केवल एक छोटी सी बात और कहना चाहता हूँ हमारा देश जिस दिन आजाद हुआ, 1947 में उस दिन बी.बी.सी के प्रतिनिधि गांधी जी के पास गए और कहा कि आप कुछ मैसेज दे दीजिए। गांधी जी ने अपना मैसेज हिन्दी में शुरू किया तो बी.बी.सी के अधिकारियों ने कहा कि अंग्रेजी में दे दीजिए। गांधी जी ने कहा कि दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। क्यों कहा? भाषा का प्रश्न नहीं है। (कॉलम 184-86, 29.10.76) मैं भी अंग्रेजी पढ़ता हूँ. अंग्रेजी से प्यार करता हूँ प्रेम करता हूँ, उसका आदर करता हूँ, शेक्सपीयर के प्रति सिर नवाता हूँ लेकिन यहां तो राष्ट्र की चेतना का प्रश्न है। इसके लिए आपने जो स्थान ध्वज को दिया और जो स्थान राष्ट्रगान को दिया है वही स्थान आप राजभाषा को दीजिए मैं समझता हूँ कि विधि मंत्री जी जब खड़े होंगे, बोलने के लिए तो सबसे पहले यही ऐलान करेंगे कि शंकर दयाल सिंह का एक संशोधन मैने मान लिया और वह संशोधन राष्ट्रभाषा के संबंध में है।" 

भर्ती परीक्षा के भंवर जाल में फंसी हिन्दी

सरकार

-नाहर सिंह वर्मा पूर्व उपनिदेशक, भारत

यह सर्वविदित तथ्य है कि स्वतंत्र देश के लिए अन्य बातों के साथ-साथ एक राष्ट्रीय निशान, एक राष्ट्रगान और एक राष्ट्रभाषा का होना जरूरी है। 15 अगस्त 1947 की आधी रात के समय यूनियन जैक को तभी हटा दिया गया, राष्ट्रगान गाया गया किंतु राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रश्न को 15 वर्ष के लिए टाल दिया गया। आज 64 वर्ष बीत जाने के बाद भी वह सत्ता के गलियारे में प्रवेश नहीं कर पायी है और प्रतीक्षा में बाहर खड़ी हुई है कि उसे उसका आसन मिलें और उसके साथ न्याय हो। अंग्रेजी उसे लाल-पीली आंखे दिखा रही है और धुड़की दे रही है, यही भारी विडम्बना है।

यो तो हिन्दी की अनेक समस्याएं है किंतु उनमें से उच्च और तकनीकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होना और अधिकतर भर्ती परीक्षाओं का माध्यम भी अंग्रेजी होना, और यदि जहां कहीं परीक्षाओं का माध्यम हिन्दी और भारतीय भाषा कर दिया गया है, तो उनमें किसी न किसी रूप में अंग्रेजी का प्रश्न-पत्र अनिवार्य बना हुआ है। इस पर समय-समय पर चर्चा होती रही है कि क्या केन्द्र सरकार की सेवा में भर्ती के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में हिन्दी भाषा का प्रश्न-पत्र भी अनिवार्य अथवा वैकल्पिक रूप में शामिल किया जाए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारत सरकार में कार्यरत अधिकारी और कर्मचारी अपने काम-काज में हिन्दी का अपेक्षित प्रयोग कर सकें। सरकार इस बारे में अभी तक कोई अंतिम निर्णय नहीं ले पाई है। दूसरी और अंग्रेजी भाषा का एक प्रश्न-पत्र (50 या 100 अंक का), कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल तथा रेल्वे भर्ती बोर्डों को छोड़कर, अधिकांश भर्ती परीक्षाओं अनिवार्य बना हुआ है। यहां तक कि रक्षा यूनिटों में सफाई कर्मचारी मैसेजर, चपरासी, मजदूर, मेट, फायरमैन, दीवान आदि के पदों की भर्ती परीक्षा में अंग्रेजी का ज्ञान / प्रश्न-पत्र अनिवार्य है।

• संविधान के अनुच्छेद 344 के अन्तर्गत राष्ट्रपति जी द्वारा 76.1955 को श्री बी. जी. खेर की अध्यक्षता में गठित राजभाषा आयोग का ध्यान भी इस ओर गया था। संविधान में की गई व्यवस्था के अनुसार, 26 जनवरी 1965 से सभी कार्य राजभाषा हिन्दी में किये जाने थे। अतः आयोग देश में राजभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने और अंग्रेजी का प्रयोग प्रतिबंधित करने की तैयारी के सम्बन्ध में सिफारिश करने के लिए बनाया गया ताकि उसकी सिफारिशों और उन पर विचार करने के लिए बाद में गठित गोविंद वल्लभ पंत समिति के प्रतिवेदन को ध्यान में रखकर अपेक्षित कार्रवाई की जाए जिससे कि 26 जनवरी 1965 के नियत दिन से भारत सरकार का सारा काम-काज हिन्दी में होने लगे। आयोग का कहना था कि चूंकि भारत सरकार के विभिन्न कार्यालय देश के विभिन्न भागों में है, इस लिए इन सबको आंतरिक कार्यों में केन्द्रीय सरकार के मंत्रालयों और विभागों के साथ पत्रव्यवहार हिन्दी में करना होगा। संक्रमण काल में जब तक कि हिन्दी, शिक्षा प्रणाली में अपना निर्धारित स्थान प्राप्त नहीं कर लेती, भर्ती परीक्षाओं में हिन्दी के न्यूनतम ज्ञान की शर्त रखी जाए और इस सम्बन्ध में जो कमी रहे उसे उम्मीदवारों की नियुक्ति के पश्चात प्रशिक्षण द्वारा पूरा किया जाए। यह तो स्पष्ट ही है कि भारत सरकार को अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं में बैठने वाले उम्मीदवारों से संघ की राजभाषा हिन्दी के निश्चित ज्ञान की अपेक्षा करने का अधिकार है। आयोग का विचार था कि केन्द्रीय लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली अखिल भारतीय या केन्द्रीय सेवाओं से सम्बन्धित प्रतियोगिता परीक्षाओं में हिन्दी का एक अनिवार्य प्रश्न पत्र रख जाए तो वह उचित ही होगा, क्योंकि इन नौकरियों पर काम करने वालों को भविष्य में इस भाषा की अपेक्षित योग्यता प्राप्त करनी होगी। आयोग ने यह भी सिफारिश की कि राज्यों के लोकसेवा आयोगों को विचार करना चाहिए कि जो उम्मीदवार संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाएं, हिन्दी माध्यम से देने की तैयारी कर रहे हैं, उनके मार्ग की बाधाएं दूर करने की दृष्टि से क्या यह उचित न होगा कि वे अपनी इस प्रकार की परीक्षाओं में भी हिन्दी माध्यम अपनाने की अनुमति दे दें। यदि राज्यों के लोक सेवा आयोग इस के लिए तैयार हो गए तो उनकी परीक्षाएं प्रादेशिक भाषाओं के अतिरिक्त हिन्दी और संक्रमण काल समाप्त होने तक अंग्रेजी में भी हुआ करेगी। 1963 में राजभाषा अधिनियम पारित होने के कारण स्थिति में यह परिवर्तन तो हुआ कि अंग्रेजी का प्रयोग 1965 के बाद भी कुछ सीमा तक जारी रहेगा किंतु हिन्दी का महत्व फिर भी बना रहा। 18 जनवरी 1968 को संसद के दोनों सदनों में पारित सरकारी संकल्प जिसे 1991 में पुनः दुहराया गया, के पैरा 4 (क) में कहा गया कि उन विशेष सेवाओं अथवा पदों को छोड़कर जिन के लिए ऐसी किसी सेवा या पद के कर्तव्यों के संतोषजनक निष्पादन के हेतु केवल अंग्रेजी अथवा केवल हिन्दी अथवा दोनों जैसी कि स्थिति हो, का उच्च स्तर का ज्ञान आवश्यक समझा जाए संघ की सेवाओं अथवा पदो के लिए भर्ती करने हेतु उम्मीदवारों के चयन के समय हिन्दी अथवा अंग्रेजी में से किसी एक का ज्ञान अनिवार्यतः अपेक्षित होगा।" हिन्दी के ऐच्छिक प्रयोग के सम्बन्ध में जनवरी 1976 और मई, 1987 में जारी किए आदेशों के अनुसार केन्द्रीय सरकार के गैर-तकनीकी पदो के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में सामान्य अंग्रेजी के प्रश्न-पत्र छोड़ कर अन्य सभी प्रश्न पत्रों, जो द्विभाषी होंगे का उत्तर देने के लिए हिन्दी अथवा अंग्रेजी का विकल्प देने के लिए कहा गया है। तकनीकी पदों की भर्ती परीक्षाओं में भी परीक्षार्थियों को उत्तर हिन्दी अथवा अंग्रेजी में देने की अनुमति दी जाए लेकिन यदि कोई प्रश्न-पत्र बहुत ही तकनीकी विषय पर हो और सम्बन्धित मंत्रालय उस प्रश्न-पत्र के उत्तर के लिए हिन्दी के वैकल्पिक प्रयोग की अनुमति देना व्यवहार्य न समझता हो तो इस सम्बन्ध में अंतिम निर्णय राजभाषा विभाग की सलाह से लिया जाए।

साथ ही कहा गया कि इन सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी का प्रश्न-पत्र अनिवार्य रूप से रहना चाहिए। यही बात राजभाषा विभाग द्वारा हिन्दी के प्रगामी प्रयोग के सम्बन्ध में जारी किए जा रहे वार्षिक कार्यक्रमों में भी बार-बार कही जा रही है। केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में हिन्दी को स्थापित करने का उत्तरदायित्व, अंततः राजभाषा विभाग का है और यही विभाग अपने आदेशों द्वारा अंग्रेजी के प्रश्न-पत्र की अनिवार्यता को भी लागू करे, अर्थात रखवाला ही चोरी कराये यह वास्तव में आश्चर्यजनक है।1955 में गठित खेर आयोग ने तो सभी भर्ती परीक्षाओं में यहां तक कि राज्यों के लोक सेवा आयोगों द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं में भी हिन्दी भाषा के ज्ञान की शर्त रखने की सिफारिश की थी। उसके बाद 1968 के राजभाषा संकल्प में भी कहा गया कि भर्ती के समय हिन्दी का अथवा अंग्रेजी का (अथवा कुछ मामलों में दोनों का ज्ञान होना चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में तो केंद्रीय सेवाओं के लिए ली जाने वाली भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी के प्रश्न-पत्र के रखे जाने का कोई नैतिक अथवा कानूनी आधार या औचित्य नहीं है।

संसदीय राजभाषा समिति ने इस मामले पर अपने प्रतिवेदन का तीसरा खण्ड पारित करते समय विचार किया था। समिति का मत था कि विभिन्न मंत्रालयों / विभागों द्वारा अपने अपने सम्बद्ध और अधीनस्थ कार्यालयों, उपक्रमों और संस्थानों आदि के विभिन्न पदो के लिए बनाए गए भर्ती नियमों के विवेचन से प्रतीत होता है कि अनेक पदो के लिए भर्ती के समय अंग्रेजी के ज्ञान की अनिवार्यता बनाए रखने के बारे में सम्बन्धित मंत्रालय / विभाग समिति द्वारा पूछने पर भी कोई औचित्य या युक्तियुक्त स्पष्टीकरण नहीं दे सके। वास्तव में सभी पद ऐसे नहीं हैं जिनके लिए अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य रखा जाए। इस प्ररिप्रेक्ष्य में समिति इस निष्कर्ष पर पहुंची कि भर्ती नियमों की पुनः समीक्षा की जानी चाहिए ताकि यदि भर्ती के समय अंग्रेजी के ज्ञान की अनिवार्यता युक्तियुक्त न समझी जाए तो उसे हटा दिया जाए । इसके अतिरिक्त चूंकि हिन्दी राजभाषा है और इसका ज्ञान कर्मचारियों को सेवा में भर्ती के बाद अनिवार्य रूप से लेना ही है इसलिए भर्ती नियमों में यह प्रावधान भी जोड़ा जाना चाहिए कि भर्ती के बाद कर्मचारी को परिवीक्षा अवधि में हिन्दी में निर्धारित स्तर का ज्ञान प्राप्त करना होगा। समिति की इस सिफारिश को स्वीकार कर लिया गया और राष्ट्रपति जी के आदेश भी 4.11.1991 को जारी कर दिए गए थे। समिति का यह भी कहना था कि परीक्षाओं में यदि भाषा सम्बन्धी प्रश्न पत्र रखा जाना आवश्यक समझा जाए तो अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं के प्रश्न-पत्र रखे जाएँ और परीक्षार्थियों को छूट दी जाए कि वह उनमें से किसी एक भाषा को चुन लें। यह सिफारिश अभी तक सरकार के विचाराधीन है। इस के बाद समिति ने अपने प्रतिवेदन के छठे खंड़ में सीधे-सीधे एक और सिफारिश भी की कि सभी भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी के प्रश्न पत्र की अनिवार्यता समाप्त की जाए। वर्ष 2011 में प्रस्तुत समिति के प्रतिवेदन के नौवे खंड में इस सिफारिश को फिर से दोहराया गया है, लेकिन इन पर राष्ट्रपति जी के आदेश अभी प्रतीक्षित हैं। जैसा कि पहले कहा गया है, भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी के पश्न-पत्र की अनिवार्यता का न तो कोई कानूनी आधार है और न नैतिक औचित्य हमारा सुझाव है कि दूसरी और संघ की राजभाषा हिन्दी होने के कारण, हिन्दी के प्रश्न पत्र को वैकल्पिक तो तुरंत कर दिया जाना चाहिए। आगे चलकर जब देश के सभी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों आदि में हिन्दी की पढ़ाई होने लगे तो परिस्थिति में हिन्दी के प्रश्न-पत्र को अनिवार्य भी किया जा सकता है। 

हमारा विचार है कि जब तक भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का प्रश्न-पत्र अनिवार्य बना रहेगा तब तक हिन्दी और भारतीय भाषाओं के साथ न्याय नहीं हो पाएगा। न्याय प्राप्त करने के लिए संगठित होकर संघर्ष करना होगा।

भर्ती परीक्षा लेने वाले कुछ कार्यालय:

1. संघ लोक सेवा आयोग, नई दिल्ली

2. कृषि वैज्ञानिक चयन मंडल, नई दिल्ली

3. कर्मचारी चयन आयोग (सभी क्षेत्रीय कार्यालय)

4. सभी रेल्वे भर्ती बोर्ड और रेल उपक्रम

5. रक्षा विभाग के भर्ती कार्यालय और यूनिट मुख्यालय आदि 

6. वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सी.एस.आई.आर)

7. रजिस्टार, उच्चतम और उच्च न्यायालय

8. कुल सचिव केन्द्रीय विश्वविद्यालय

9. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली

10. लोक सभा / राज्य सभा सचिवालय का संयुक्त भर्ती प्रकोष्ठ

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