पाठ्यक्रम का स्वरूप

क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनु सार:- पाठ्यक्रम वहां-वहां की स्थानीय भाषाओं में हो।

पाठ्यक्रम का निर्माण शिक्षा के उद्देश्य के प्रकाश में ही होना चाहिए। एक प्रकार से शिक्षा का उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम के उद्देश्य एक ही होना चाहिए। शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति में पाठ्यक्रम का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान होता है। पाठ्यक्रम की रचना करते समय अतीत का आधार लेकर वर्तमान की आवश्यकताएँ एवं भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखना होगा।

 शिक्षा का उद्देश्य:- 

 चरित्र निर्माण एवं  व्यक्तित्व का विकास। 

 सामाजिक एवं  राष्ट्रीय आवश्यकताओ  की पूर्ति । 

 राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियो  का समाधान। 

यूनेस्कों की डैलर्स समिति के अनुसार किसी भी देश की शिक्षा वहां की संस्कृति एवं प्रगति के अनुरूप होनी चाहिए। मैनें इसमें एक शब्द ‘‘प्रकृति’’ जोड़ा है। इस हेतु किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति, प्रकृति एवं प्रगति के अनुरूप हो।

इसी प्रकार मु दालियर आयोग की अनुशंसाओ में शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य दर्शाया गया है, सामाजिक चेतना, देश प्रेम की भावना एवं छात्रों में नागरिकता का विकास है।

 चरित्र निर्माण एवं  व्यक्तित्व विकास 

छात्रों के चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु उपनिषद में दिये गये पंचकोशकी संकल्पना आधारभूत है। स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा से तात्पर्य के संदर्भ में कहा है कि ‘‘मेन मेकिंग एन्ड केरेक्टर बिल्डिं़ग।’’ वास्तव में शिक्षा के उद्देश्य के यही मूल तत्व है। इनकी आधारभूत संकल्पना पंचकोश में हैः-   अन्नमय कोश - शारीरिक विकास 

  प्रणमय कोश - प्रणिक विकास 

  मनोमय कोश - मानसिक विकास 

  विज्ञानमय कोश - बौद्धिक विकास 

  आनन्दमय कोश - आध्यात्मिक विकास (आत्मिक विकास) 

  सामाजिक एवं  राष्ट्रीय आवश्यकताओ की पूर्ति ः-

देश में ‘‘मानव शक्ति सर्वे’’ (मेन पावर सर्वे) करके भारत में कितने डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक आदि की आवश्यकता है। उसके अनुसार शैक्षिक संस्थानों का निर्माण होना चाहिए। उदाहरण आज हमारे देश में सेना के अधिकारियों के हजारो पद रिक्त है, इस हेतु सैनिक शिक्षा को प्रमुखता देनी चाहिए। उसी प्रकार अनुसंधान का कार्य बहुत कम हो रहा है इस हेतु विद्यालय स्तर से ही प्रयोगशीलता को बढ़ावा देना चाहिये, जिससे क्रमशः छात्रों का अनुसंधान कार्य का स्वभाव बने। इसको ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम की व्यवस्थाएँ होनी चाहिए। देश की योजना एवं शिक्षा की योजना का तालमेल होना चाहिए।

कोठारी आयोगः- माध्यमिक शिक्षा को राष्ट्र में श्रमशक्ति की आवश्यकताओं की ओर प्रवृत किया जाये।

  राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय, चुनौतियों का समाधान:- 

देश और दुनिया के समक्ष आज जो संकट विद्यमान है। उन संकटो के प्रति जागरूकता एवं संवदेनशीलता निर्माण करके उनके समाधान की दिशा में ठोस कार्य करने हेतु नये पाठ्यक्रमों की शुरूआत एवं वर्तमान पाठ्यक्रम में उन विषयों का योग्य पद्धति से समावेश करना आवश्यक है। इनकी समय-2 पर समीक्षा करके आवश्यक बदलाव भी अपेक्षित है। इस हेतु:-

1. आतंकवाद एवं राष्ट्रीय सुरक्षा।

 2. आर्थिक सामा्रज्यवाद एवं वैश्विक मंदी।

3. विश्व की महत्वपूर्ण भाषाओं का अध्ययन।

4. पर्यावरण का संकट एवं ग्लोबल वार्मिंग।

5. स्वास्थ्य शिक्षा

6. विभिन्न पंथ/मजहबों का सांमजस्य आदि के पाठ्यक्रम शुरू होने चाहिए या इन विषयों का पाठ्यक्रम में समावेश होना चाहिए।

  पाठ्यक्रम की आधारभूत संकल्पनाएं - 

  पंचकोश आधारित पाठ्यक्रम।

  व्यवहार और सिद्धांत का संतुलन।

  भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समायोजन।

  प्राचीन एवं आधुनिकता का समन्वय।

  समग्रता एवं एकात्म का दृष्टिकोण।

  व्यवहार एवं  सिद्धांत का संतुलन:- 

सिद्वांत जब तक व्यवहार में नहीं आता है तब तक उस सिद्धांत का ज्यादा उपयोग नहीं होता है। व्यवहारिकता एवं प्रायोगिकता के दो प्रकार हो सकते है

‘’1. विद्यालय की प्रयोगशाला, कक्षा एवं मैदान में प्रयोग

2. विद्यालय की चार दीवार के बाहर, दोनो का महत्व है। इस हेतु हर पाठ के अंत में गतिविधियों का एक विभाग (चेप्टर) होना चाहिए। जिसमें प्रकल्प कार्य(प्रोजेक्ट वर्क), छोटे-मोटे प्रयोग, कार्यक्रम, नियमित कार्य आदि का समावेश किया जा सकता है। एक प्रकार से पाठ्यक्रम क्रिया आधारित होना चाहिए। 

 

  भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समायोजन 

प्रत्येक विषय की शुरूआत में इस दृष्टिकोण को स्पष्ट करना चाहिए। उदाहरण के लिये मेडिकल के पाठ्यक्रम में डॉक्टर क्यों बनना है इसके पीछे का सामाजिक, राष्ट्रीय एवं मानवीय दृष्टिकोण का प्रस्तुतीकरण अनिवार्य रूप से हो। यानी डॉक्टर बनकर बड़े आदमी बनना है, अच्छा पैसा कमाना है इसके साथ मानव एवं गरीबों की सेवा करके स्वस्थ समाज के निर्माण करने हेतु मुझे महत्वपूर्ण योगदान देना है यही आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। मा. दीनानाथ बत्रा जी के शब्दों में ‘‘शिक्षा जीने और जीवन के लिये है’’(म्कनबंजपवद वित सपअपदहंदक सपमि)

स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि निःस्वार्थ भाव से कोई भी कार्य करना यही आध्यात्मिकता है। इस हेतु सामाजिक कार्य पाठ्यक्रम का हिस्सा हो जो सिद्धांत पुस्तक में बताए गये है उसकी व्यवाहारिक शुरूआत कहां से होगी? स्वयं से ही। इसी प्रकार नौकरी-व्यवसाय करते समय किसी व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं पर्यावरण को नुकसान करने वाली कोई भी बात नहीं करना आदि। यही आध्यात्मिक दृष्टिकोण है।

  प्राचीन एवं  आधुनिकता का समन्वयः- 

हर विषय का प्रथम पाठ उस विषय के भारतीय इतिहास का होना चाहिए। हमारे प्राचीन गं्रथों में अनेकों विषयों का ज्ञान उपलब्ध है। उदाहरण के लिये वैदिक गणित। वैदिक यह प्राचीन संकल्पना है परन्तु प्रतियोगी परीक्षा में उसका, अच्छा उपयोग है। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने वैदिक गणित का 1 से 12 तक का पाठ्यक्रम का प्रारूप केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद् के गणित के पाठ्यक्रम में वैदिक गणित का वैकल्पिक रूप में कहां-कहां उपयोग किया जा सकता है, जिससे छात्रों को गणित समझना सरल हो जाए। इस प्रकार का पाठ्यक्रम तैयार किया है। 

इसी प्रकार संगणक (कम्प्यूटर) में संस्कृत का उपयोग। इस विषय पर, नासा (अमेरिका) में भी कार्य किया जा रहा है। सीखने की पद्धति में संगणक के समावेश के साथ संवाद माध्यम के अधिक उपयो को पुनः लाना होगा। विद्यालयों के आधुनिक सुविधायुक्त भवनों में गुरु शिष्य की श्रेष्ठ परम्परा को पुनः स्थापित करना होगा।

कुछ लोग मानते हे कि जो भी आधुनिक है वह श्रेष्ठ है इसलिए प्राचीन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार कुछ लोग यह मानते है कि प्राचीन ही श्रेष्ठ है इसलिये आधुनिकता की आवश्यकता नहीं है। दोनो अंतिमवादी सोच ठीक नहीं है। दोनों का समन्वय करने से उत्कृष्टता की ओर बढ़ा जा सकता है। प्रत्येक विषयों में इसी दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम तैयार किये जा सकते है।

इस प्रकार जो भी आधुनिक शोध-अनुसंधान होते है वह हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिए। पाठ्यक्रम में सतत सुधार प्रक्रिया होनी चाहिए। जब वैश्विक स्तर पर ईश्वरीय कण (गोड पार्टिकल) पर नया अनुसंधान हुआ उसके बारे में हमारे छात्रों को जानकारी ही नहीं, न पाठ्यक्रम का हिस्सा बनी यह घटना। विश्व जितनी गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से हमारे पाठ्यक्रम में सतत सुधार आवश्यक है। इस प्रकार प्राचीन एवं आधुनिकता के समन्वय से श्रेष्ठ शिक्षा दी जा सकती है।

समग्र एवं एकात्म दृष्टिकोण 

सभी कक्षाओं एवं सभी विषयों के पाठ्यक्रम शिक्षा के उद्देश्य के प्रकाश में हो। उद्देश्य सम्बन्धित एवं आधारभूत अंग सम्बन्धित सारे विषयों का सभी स्तर पर समावेश होना चाहिए। पाठ्यक्रम में सातत्य रहे इस हेतु सभी कक्षाओं के पाठ्यक्रम को तुलानात्मक देखना होगा। जहां तक संभव हो। पाठ्यक्रम एक छत के नीचे लिखा जाना चाहिए। अन्यथा कई बार देखने को मिलता है कि कक्षा 8 का पाठ्यक्रम कक्षा 9 से ज्यादा बड़ा और जटिल हो जाता है।

वर्तमान में शिक्षा का खण्ड-2 में विचार किया जा रहा है। परिणाम स्वरूप इसमें से निकलने वाले युवक का व्यक्तित्व भी खंडित बन रहा है और इसका प्रतिबिंब समाज जीवन में भी दिखाई देता है। इसके परिणामस्वरूप आज अपना समाज जाति, भाषा, प्रांत, अमीर-गरीब, महिला-पुरूष, तथाकथित सवर्ण, दलित आदि में बटा हुआ है।

  पाठ्यक्रम में समाविष्ट शिक्षा के  अन्य उद्देश्य:- 

  सृजनात्मक शक्ति, कल्पना शक्ति एवं जिज्ञासा वृति का विकास।

  ज्ञानात्मक, बोधात्मक, भावात्मक, संवेदानात्मक, क्रियात्मक, कौशलात्मक विकास।

  पाठ्यक्रम तैयार करते समय ध्यान रखने  हेतु आवश्यक बाते - 

  क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनु सार:- पाठ्यक्रम वहां-वहां की स्थानीय भाषाओं में हो। उस क्षेत्र के कृषि उत्पाद, प्राकृतिक सम्पदा एवं व्यवसाय-रोजगार के अनुसार पाठ्य-सामग्री एवं उनमें वहां के अनुरूप उदाहरणों का समावेश हो। गोवा के पाठ्यक्रम में काजु की खेती और उत्पादन सम्बन्धित बाते हो सकती है। परन्तु वहीं बाते दिल्ली या कोलकाता के पुस्तको में अपेक्षित नहीं होगी।

  गांवो  एवं  जनजातिय क्षेत्रो का पाठ्यक्रम:- हमारा देश अधिकतर गांवो में बसा है परन्तु हमारे यहां आज अधिकतर पाठ्यक्रमों की रचना शहरों पर आधारित है। शहरी और ग्राम्य एवं जनजातीय क्षेत्रों के पाठ्यक्रम का स्वरूप भिन्न हो सकता है या एक ही पाठ्यक्रम में सभी की आवश्यकताओं का समानरूप से समावेश किया जा सकता है।

 

  पाठ्यक्रम में लचीलापन:-वर्तमान व्यवस्था में आप विज्ञान के साथ संगीत या संस्कृत नहीं पढ़ सकते। विशेष करके 10वी, 11वीं एवं 12वीं में विषयों के चयन में अधिक लचीलेपन की आवश्यकता है। छात्रों को अपनी रुचि-प्रकृति के अनुसार विषय चुनने का अवसर होना चाहिये।

  पाठ्यक्रम में सातत्य, संतुलन एवं सकारात्मक दृष्टिकोण होना चाहिए।

  सभी स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी एवं तकनीकी का आवश्यकतानुसार समावेश किया जाए।   कम से कम हर तीन वर्ष में पाठ्यक्रम की समीक्षा करके नया पाठ्यक्रम तैयार होना चाहिए।   शुद्धता, स्वच्छता का ध्यान रखा जाए।

  पाठ्यक्रम जटिल न हो। सरलता से कठिन की और आगे बढ़ने का क्रम हो।

  पाठ्यक्रम में तथ्यात्मकता एवं वैज्ञानिकता का विशेष ध्यान रखा जाए।

  शिक्षा के  आधारभूत अंग का पाठ्यक्रम मे समावेश:- 

  व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण, मूल्य आधारित, पर्यावरण, योग, शारीरिक शिक्षा, खेल, संगीत शिक्षा, सामाजिक कार्य, सैनिक शिक्षा, कृषि शिक्षा।

  स्वावलम्बन हेतु शिक्षा:- व्यवसायिक शिक्षा, कौशल की शिक्षा (स्किल डवलपमेंट)   जीवनकौशल का शिक्षण:- समय प्रबंधन, स्वास्थ्य प्रबंधन, तनाव प्रबंधन, वित्तीय प्रबंधन।   सहशैक्षिक गतिविधियांँ:- छात्रों में राष्ट्रीयता एवं नागरिक कर्तव्य भाव का विकास आदि।

  पाठ्यचर्या  - पाठ्यक्रम - पाठ्य सामग्र  - पाठ्य पुस्तकः- 

उपरोक्त शिक्षा के उद्देश्य के प्रकाश में पाठ्यचर्या की भूमिका तैयार की जानी चाहिए। पाठ्यचर्या समग्र प्रक्रिया का आधारभूत अंग है। पाठ्यचर्या में दिए गए उद्देश्य के प्रकाश में पाठ्यक्रम तैयार होना चाहिए। इस पाठ्यक्रम के आधार पर आवश्यक पाठ्य सामग्री का निर्धारण करके पाठ्य पुस्तकें तैयार करना समीचीन होगा।

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