प्रबंधन में जीवन मूल्य
प्रबन्धन, निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए भौतिक, मानवीय तथा आर्थिक संसाधनों का समायोजन है।
प्रबन्धन में जीवन मूल्य
मैं अपनी बात आस्ट्रेलिया के टी.वी चैनल में उस दृश्य से कर रहा हूँ जो 1983 में विश्व के सभी धर्मों जिसमें हिन्दू धर्म भी सम्मिलित था दिखाया जा रहा था। एक चिकित्सक पोलियो ग्रस्त बच्चे का उपचार कर रहा था और कह भी रहा था "मेरे लिये यह नन्ना-मुन्ना मरीज नहीं है अपितु इससे अधिक कुछ और भी है। मैं परमात्मा की पूजा कर रहा हूँ –यह एक महान पावन दृष्टिकोण है जो किसी धर्म और दर्शन शास्त्र में सेवा में ईश्वर के दर्शन करता है।" दर्शन शास्त्र हम सबको यह ज्ञान देता हैं कि प्रत्येक अणु में परमाणु और परमाणु के भी प्रत्येक खण्ड में ईश्वर विद्यमान है।
"ईशा वास्यमिदम् सर्वम् जगत्यांजगत "
(सम्पूर्ण जगत में ईश्वर का वास है।)
इस तथ्य की अनुभूति होने पर मनुष्य की देखने की दृष्टि, दृष्टिकोण तथा दृष्टिपथ सब बदल जाता है। वह प्रत्येक कार्य को पूजा भाव से करता है। स्वामी विवेकानन्द जी ने आत्मानुशासन, सामाजिक दायित्व तथा सामूहिकता पर विशेष बल दिया है। स्वामी जी के कथनानुसार स्वतन्त्रता, उत्तरदायित्व-अधिकार, कर्तव्य-चिन्तन, क्रिया-लक्ष्य, क्रियान्वयन, आन्तरिक साधुता, आर्थिक भव्यता, भौतिक तथा आध्यात्मिक ज्ञान, परिवर्तन, गति-गीत, ऊष्णता-ऊर्जा, इन युग्ल शब्दों के अर्न्तद्वन्द में से वह मार्ग चुनें जिन में शब्द, अर्थ, भाव तथा जीवन का सामंजस्य हो और इससे मानवता का कल्याण हो। व्यावसायिक शिक्षा के किसी क्षेत्र में इस अधिष्ठान पर किया गया कार्य, जीवन का मूल्य और कर्ता के लिये मूल्यवान है। वह मूल्यवान व्यक्ति अपने कार्य तथा व्यवहार से साकारात्मक ऊर्जा को विस्तृत करता है और वह केवल अपने व्यवसाय में ही नहीं अपितु समाज तथा देश में भी सन्तुलन लाता है और संस्कृति को भी सुदृढ़ करता है।
प्रबन्धन -(Management)
प्रबन्धन, निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए भौतिक, मानवीय तथा आर्थिक संसाधनों का समायोजन है। Management is an integration of physical human and financial resource to achieve an end. इस कथन में समायोजन शब्द बड़े महत्व का है। आर्थिक संसाधनों का उपयोग इस ढंग से हो कि भौतिक तथा मानवीय संसाधनों में संतुलन बना रहे। यदि किसी भी कारक का विछोह हुआ तो उद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े से बड़े व्यावसायिक केन्द्र धराशायी हो जाते है "
प्रबन्धन एक कला है। यह मशीन के समान यन्त्रवत् नहीं, यह जीवन्त, मानवीय, सामाजिक, आध्यात्मिक तथा उत्पादन क्रिया है। (Hoyle E) के कथानुसार Management is a continuous process through which members of an organization seek to coordinate their activities and utilize their resources in order to fulfill the various tasks of the organizations as efficiently as possible " संस्थान के भिन्न-भिन्न कार्यों को निपुणता से सम्पन्न करने के लिए सभी समवृति से कार्य करने वालों की गतिविधियों तथा संसाधनों के समायोजन की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया को प्रबन्धन कहते हैं।
प्रबन्धन एक ऐसी विधि है जिसमें संस्थान के सुसंचालन के लिए योजना, सुव्यवस्था प्रेरणा तथा स्वानुशासन, एकरसता, एकात्मभाव सबको एक दूसरे के साथ ऐसे समाहित किया जाता है जिससे मानवीय तथा भौतिक तथा आर्थिक संसाधनों का उत्कष्ट परिणाम (Excellence) प्राप्त करके लक्ष्य प्राप्त हो सकता है ।
प्रबन्धन में जीवन मूल्य :-
प्रबन्धन में केवल बुद्धि का नहीं अपितु हृदय का भी साथ है और इस सन्तुलन से एक हृदय दूसरे हृदय को स्पर्श करता है और निर्णय न्याय संगत होता है। ऐसी स्थिति किसी भी संस्था को ऊर्ध्वगामी तथा सचेत, जागरूक, मूल्यपरक, संख्यात्मक तथा गुणात्मक दृष्टि से विकासशील बनाती है।
प्रबन्धन में जीवन मूल्यों का उदय, विशाल भवन, भौतिक संसाधन, नियम, उपनियम तथा आर्थिक समपन्नता से नहीं अपितु हृदय की गहराई से ऊर्जा प्राप्त कर अतयात्रा से बार्हिगमन की ओर बढ़ती है। इसे हम अन्दर बाहर का आना-जाना (Inside,Out) कहते हैं। इस गतिशीलता से संस्था, स्वस्थ, समृद्ध, समरस तथा पारदर्शी बनती है और अपने उद्देश्य में सफल होती है।
बरट्रेण्ड रसल (Bertrand Russell) का कथन है Values are not mechanical, whatever may be mechanical, the values of values are values of the hearts. मूल्यों का सृजन यन्त्रवत नहीं होता। इनका मुल स्थान मानव हृदय ही है। जब किसी संस्थान में प्रबन्धक कुर्सी पर बैठक कर किसी कर्मचारी की कार्य-पंजिका की समीक्षा करता है तो वह यन्त्रवत स्थिति में रहता है। परन्तु जब वह मानवीय चेहरा पहन लेता है तो वह स्वयं को कार्य और कार्यकर्ता को गौरवशाली बना देता है।
संस्था, ज्ञान, भावना तथा क्रिया का संगम है। शुद्ध विज्ञान सरस्वती, प्रायोगिक विज्ञान लक्ष्मी, दोनों की पूजा, अर्चना का यह पवित्र स्थल है। यह सुख, सम्वृद्धि, आनन्द तथा संतोष की भावभूमि है।
प्रबन्धन के जापानी मानक नमूने – (Model) में 7 सोपान है – Strategy (रीति-नीति), structure (ढांचा) Systems (व्यवस्थाएं) Staff -(कर्मचारी) Style (शैली), Skill (कुशलता) Super ordinate goal (उदात्त लक्ष्य)।
इनमें प्रथम तीन यान्त्रिकी (Mechanical) हैं और आगे के तीन मानवीय अवधारणाएँ हैं और सातंवा मूल्य (लक्ष्य) इन दोनों श्रेणियों को बाधंता है और जिसे हम भारतीय सोच में धर्म कहते हैं। संस्थाओं में मनुष्य की दृष्टि, दृष्टिकोण तथा दृष्टिपथ का महत्व है। अनुभूत ज्ञान (wisdom) से मार्ग प्रशस्त होता है। पाश्चात्य तथा भारतीय दृष्टिकोण में अन्तर है और वह यह- अध्यात्मिकता, सामाजिकता तथा एकात्मता भारत में इसका निकट से अविच्छन्न सम्बन्ध है। यह भारत की चेतना है।
पेसकेल ने अपनी पुस्तक में लिखा है East - They were generally more sophiscated than the west in initialization, social and spiritual faces for the organization's benefit and the accepting the responsibilities to their employees that went with such broad influence" पाश्चात्य जगत से भिन्न भारतीय-सामाजिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का उपयोग, वह अपने कर्मचारियों के लिए करते रहे हैं जिसका कार्य पर व्यापक प्रभाव रहा है।
जापान की मातसूहीता (Matsushita) विद्युत कम्पनी
1. जापान की यह प्रथम कम्पनी है जिसने अपने कर्मचारियों के लिए एक गीत निश्चित किया है और एक आचार-संहिता भी तैयार की है।
2. प्रतिदिन प्रातः 8:00 बजे जापान के कोने-कोने में 87000 सभी कर्मचारी एकत्रित होकर, गीत गाते हैं और आचार-संहिता दोहरा कर इस संकल्प का स्मरण करते हैं कि हम एक समाज के अभिन्न अंग है।
3. 5 मिनट के लिए मौन प्रार्थना उनकी दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है।
4. प्रत्येक व्यक्ति के प्रशिक्षण कार्यक्रम पर बल दिया जाता है। इसकी मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित है :
- दिनचर्या का महत्वपूर्ण भाग है कि प्रत्येक व्यक्ति मास में एक बार अपने सहयोगियों से किसी एक विषय पर बातचीत करता है और कहता है "आओ, हम आपने दायित्व का निर्वाह करें।
- समाज हित की भी चर्चा होती है।
- विश्व संस्कृति के विकास में योगदान को भी कर्तव्य माना जाता है।
सात अध्यात्मक मूल्य
अध्यात्मिकता को जीवन का मूल मानकर कम्पनी के कार्यकर्ता सात मूल्यों पर आचरण करने का संकल्प लेते हैं।
1. राष्ट्र की सेवा का व्रत ।
2. प्रामाणिकता ।
3. सहयोग तथा एकात्मभाव
4. अच्छाई में वृद्धि के लिए संघर्ष ।
5. शिष्टाचार और नम्रता ।
6. परिस्थितिनुकूलता तथा समरसता ।
7. कृतज्ञता ।
"मैं' की अपरिपकवता को "हम" की परिवकवता में रूपान्तरण करने में आध्यात्मिकता सहायक होती है और अहम् से वयम् की यात्रा पूर्णयता को प्राप्त होती है। जापान में इस अवधारणा को वा (wa) कहते हैं जिससे अभिप्रेत है समूह में एकात्मभाव, मिलजुलकर काम करना, टोली भावना, सृजनात्मक सहयोग। मानवता के सम्बन्धों को सुदृढ़ करना वह अपना धर्म समझते हैं। जापान के लोग समय पालन पर बल देते हैं। उनके देश में घड़िया भी बनती हैं (प्रायः वह अपनी कलाई पर घड़ी नहीं बांधते) फिर भी कार्य समय पर पूर्ण करते हैं। वह घड़ियों का अपने लिए उपयोग न करके, दूसरे देशों में निर्यात के लिए भेज देते हैं। देश को समृद्ध करने का यह भी उनका एक मार्ग हे।