महिलाओं का उत्पीडन कारण एवं निदान
हमने भारत को "भारत" बनाना है तो हमने अपने देश की संस्कृति, परम्परा एवं आवश्कताओं के अनुकूल व्यवस्थाए...
दिनांक 16 दिसम्बर 2013 की सामूहिक बलात्कार की घटना ने देश को झकझोर दिया है। युवक-युवतियाँ रास्ते पर आन्दोलनरत है। राजनीतिक स्तर पर भी जोर-शोर से बहस चल रही है। विभिन्न चैनलों का एवं समाचार माध्यमों का केन्द्र बिन्दू कुछ दिनों के लिए यही विषय बना है। दूसरी तरफ देखें तो दिनांक 16 दिसम्बर की इस जघन्य घटना के बाद इस प्रकार की घटनाओं में तेजी आई दिख रही है, कुछ दबी हुई घटनाएं भी बाहर आ रही है।
दिनांक 16 दिसम्बर की घटना के बाद महिलाओं पर अत्याचार, बलात्कार सम्बन्धित बातों पर देश में चर्चा केन्द्रित है। यह आवश्यक भी है, परन्तु देश के वर्तमान परिदृश्य पर समग्रता से दृष्टि डालते है तो ध्यान में आता है कि महिला पर अत्याचार, हिंसा, लूटपाट आदि की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। बाकी घटनाओं की आज चर्चा कम है। जब अन्य समस्याओं के संदर्भ में भी कोई बड़ी घटना होगी तब उस पर भी कुछ समय के लिए गरमा-गरम चर्चा होगी। कुल मिलाकर देखा जाए तो देश की सामाजिक स्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। उन पर समग्रता से चिन्तन करके समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है। दिनांक 16 दिसम्बर की घटना देश की बिगड़ी हुई सामाजिक स्थिति का ही परिणाम है। कारण तो कुछ और है, किसी भी समस्या का स्थाई समाधान चाहिए तो उनके कारणों को ढूढकर निदान की प्रक्रिया प्रारंभ करनी होगी।
आज कानून में सुधार एवं पुलिस की अपर्याप्त व्यवस्था एवं कुछ मात्रा में उनका संवेदनहीन दृष्टिकोण पर चर्चा केन्द्रित है और इसमें सुधार अवश्य होना भी चाहिए। विगत वर्ष दिल्ली में 700 आसा- पास घटी हैं जिसमें से मात्र 1 को ही दोषी ठहराया जा सका है। यह आज की कानून व्यवस्था की भयानकता को दर्शाता हैं। यह आंकड़ा भी सही नहीं क्योकि अनेक घटनाएँ तो पुलिस स्टेशन तक पहुँचती ही नहीं हैं। एक समाचार पत्र में आई घटना में बलात्कारी आटो चालक ने स्वयं स्वीकार किया कि उन्होंने इस प्रकार 9 महिलाओं को शिकार बनाया है। जिसमें से मात्र दो ने फरीयाद दर्ज की थी। दूसरी ओर कई बार बर्षो तक केस चलते रहते हैं। उसके बाद सजा होगी तो भी उसका कोई मतलब नहीं होता। इस हेतु आज के कानून में सुधार होना चाहिए। न्यायालयों (फास्ट ट्रेक कोर्ट) की संख्या अधिक बढानी चाहिए, पीडितों को जल्द से जल्द एक निश्चित समय मर्यादा में न्याय मिलना चाहिए। इस प्रकार पुलिस की संख्या बढ़ाना और उसको चुस्त-दुरुस्त करना आदि बातें है। यह सारी बातें समस्या के बाद न्याय जल्दी प्राप्त हो, कड़ी सजा हो। इस दिशा में और भी कई बाते हो सकती हैं। कड़े कानून के भय से कुछ बातों में सुधार भी हो सकता है। परन्तु इससे समस्या का सम्पूर्ण समधान संभव होगा क्या? इस हेतु इसके मूल में जाकर देखने का प्रयास करने से ध्यान में आता है कि स्वतंत्रता के पूर्व अंग्रेजों ने जो व्यवस्थाएं यहां स्थापित की उसी को हमने स्वतंत्रता के बाद यथावत जारी रखा, उसका यह परिणाम है। शासन प्रशासन आज भी जनता के साथ अंग्रेजों के समय के अधिकारियों जैसा ही व्यवहार करते हैं। अंग्रेज़ो के समय अधिकारियों को मिलना मुश्किल था। आज भी उनके स्थान पर बैठे हमारे राजनेताओं या प्रशासनिक अधिकारियों को मिलना इतना ही कठिन है। अधिकतर नेता सुरक्षा जवानों के बीच में रहकर जनता से दूरी बनाकर रहने में ही अपना बड़पन मानते है। पुलिस जनता के मित्र के बदले अधिकतर शत्रु जैसा व्यवहार करती है। 1947 के पूर्व का वाइसराय भवन आज राष्ट्रपति भवन है। अंग्रेजो की पार्लियामेंन्ट आज हमारी संसद है। प्रशासनिक व्यवस्था यथावत है। अधिकतर वही कानून आज भी चलाए जा रहे है। हमने भारत को "भारत" बनाना है तो हमने अपने देश की संस्कृति, परम्परा एवं आवश्कताओं के अनुकूल व्यवस्थाएं बनानी होगी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है, सभी व्यवस्थाओं की आधारभूत व्यवस्था शिक्षा।
देश में इस विषय पर चल रही व्यापक चर्चा में एक बात बार-बार उभरकर सामने आई कि हमने अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाना होगा। बात बिल्कुल ठीक है, परन्तु दृष्टिकोण में बदलाव आये कैसे? यह बड़ा प्रश्न है। फांसी की सजा से, पुलिस की व्यवस्था बढ़ाने से, बलात्कारी नामों की सूची नेट पर डालने से यह बदलाव संभव है क्या? मेरी दृष्टि से दृष्टिकोण बदलाव, विचारों से आ सकते है। विचारों में बदलाव परिवार के संस्कारों एवं शिक्षा में नैतिक मूल्यों के समावेश तथा समाज के संस्कारक्षम वातावरण से संभव हो सकता है। एक बार कानपुर के एक प्रसिद्ध चिकित्सक (डाक्टर) से मिलने गया था। तब बातचीत में नागरिक कर्तव्य (सिविक सेन्स) के संदर्भ में चर्चा चली तब उन्होंने कहा कि हम जब मुम्बई में रहते थे तब बस में बैठने हेतु भी कतार में खड़े रहते थे। लेकिन जैसे ही कानपुर स्टेशन पर उतरते हैं, हम सारी बातें भूलकर अनुशासनहीन व्यवहार करने लगते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामान्य मनुष्य जैसा समाज का वातावरण है वैसा बन जाता है।
महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की शुरूआत स्वयं के परिवार से करनी होगी। परिवार में बहन, बेटी, पत्नी, माता के साथ सम्मानपूर्वक एवं समानता का व्यवहार हो। जिस परिवार में महिला का सम्मानजनक स्थान नहीं है, वह समरस परिवार नहीं हो सकता। दूसरी और अनेक पारिवारों में गृह कार्य संभालने वाली महिला की तुलना में नौकरी, व्यवसाय करने वाली महिला को अधिक सम्मान मिलता है। इस दृष्टिकोण में भी बदलाव आवश्यक है। आज भौतिकता की दौड़ में बालकों पर उचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। माता-पिता के पास समय नहीं है। गरीब परिवारों में माता-पिता दो वक्त की रोटी हेतु परेशान हैं। इस कारण से वहां बालको की तरफ उचित ध्यान नहीं है। इससे बालकों का सही दिशा में विकास संभव नहीं है। अधिकतर मध्यम वर्ग भौतिकता की दौड़ में पति-पत्नी दोनों नौकरी व्यवसाय में प्रवृत होने के कारण उनके पास बालकों के लिए समय नहीं हैं। इसी प्रकार ज्यादातर आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न परिवारों में ड्रीक्स, डान्स एवं क्लब, कल्चर बहुत तेज गति से आगे बढ़ रहा है। वहां बालकों को नौकरानी या आया के भरोसे छोड़ा जा रहा है। इस प्रकार की परिस्थिति में बालकों को प्रेम व योग्य संस्कार कैसे मिलेगा? जब बालको को माता-पिता से स्नेह, संस्कार नहीं मिलते, तब अतृप्त बालक असहिष्णु किशोर बनता है। दूसरी और आज खुलापन बढ़ रहा है। अधिकतर फिल्मों, दूरदर्शन चैनलों एवं विभिन्न समाचार माध्यमों के द्वारा महिलाओं को भोग के साधन के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है। कम्प्यूटर, इंटरनेट में सब प्रकार की सामग्री उपलब्ध है। इस परिस्थिति में बालकों को अधिक संस्कारों एवं समझदारी की आवश्यकता है। इसका माध्यम है माता-पिता का बालकों के प्रति स्नेह, संवाद और समझदारी का व्यवहार । अगर इस दिशा में ठोस प्रयास किया जाए तो समस्या का समाधान संभव है। एक बार टी.वी. चैनल में कार्य करने वाले एक मित्र के घर जाना हुआ। अतिथि कक्ष में टी.वी. उल्टा पड़ा था। मैने मित्र से प्रश्न किया की घर का टी.वी. खराब हो गया क्या? उन्होंने उत्तर दिया नहीं। अतुल जी मेरे बेटे की 10वीं बोर्ड की परीक्षा है। इसलिए हम सबने तय किया है कि हम टी.वी. नहीं देखेंगे। थोड़ी देर बाद उनकी कक्षा 4 में पढ़ने वाली लड़की से वहीं प्रश्न पूछा। इस बालिका के और उसके पिता के उत्तर में एक ही शब्द का अन्तर था। बालिका ने कहा मेरे भैया की बोर्ड की परीक्षा के कारण हम सबने टी.वी. नहीं देखने का तय किया है। इस प्रकार की समझदारी, बालकों में आज भी निर्माण की जा सकती है। आवश्यकता है अभिभावकों के समझदारी पूर्ण व्यवहार की, अन्यथा अधिकतर मामलों में देखने को यह मिलता है कि बालक टी.वी. देख रहा है तब परीक्षा के कारण उसको डांटकर पढ़ने भेजा जाता है, बाद में परिवार के अन्य सदस्य टी.वी. देखते है। इसका उस बालक के मन पर क्या परिणाम होगा?
इसी प्रकार और एक महत्वपूर्ण समस्या पर हमारा ध्यान नहीं है, या उसकी चर्चा नहीं है। 30, 40 वर्ष पूर्व बालकों की यौन सम्बन्धित समझदारी 16 से 18 वर्ष के आसपास आती थी। साधारणत उसी उम्र में उसका विवाह हो जाता था। आज बालकों की यौन सम्बन्धित समझदारी 10 से 12 वर्ष की उम्र में आ जाती है और उनके विवाह की उम्र 30 वर्ष आसपास हो गई हैं। इतने वर्ष किशोर-युवा संयम के साथ कैसे बिताएं यह बड़ा प्रश्न है। पूर्व में इतना खुलापन, इतनी तकनीकी आदि भी उपलब्ध नहीं थी। इस हेतु आज बच्चों में संस्कार, समझदारी लाने के लिए अधिक मात्रा में प्रयास, संवाद की आवश्यकता है। इस विषय पर समाज में व्यापक चिन्तन की आवश्यकता महसूस हो रही हैं।
सबसे प्रमुख कारण में एक है देश की शिक्षा का वर्तमान स्वरूप। जिस देश की शिक्षा में मूल्यों, नैतिकता, आध्यामिकता का सदन्तर अभाव होगा, वहाँ युवाओं में अनैतिकता पनपने की पूरी संभावना होती हैं। महर्षि अरविन्द ने कहा है- "कि जब से देश की शिक्षा से जीवन मूल्यों का विछोह हो गया तब से देश की जनता धर्म एवं प्रथभ्रष्ट हो गई।" आज अधिकतर परिवारों में संस्कार का अभाव दिखाई देता है। क्योंकि आज के माता-पिता भी इसी शिक्षा व्यवस्था से निकले हुए है। मेरे विचार से शिक्षा से तीन बातें फलित होनी चाहिए।
1.व्यक्तित्व का समग्र विकास एवं चरित्र निर्माण
2. देश समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति
3. राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय चुनौतियों का समाधान। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से उपरोक्त एक भी बात सिद्ध नहीं हो पा रही है। इसके विपरीत राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) की हिन्दी की पुस्तक में महिलाओं को अपमानित करने वाली बाते पढ़ाई जा रही है।
उदाहरण:- कृतिका, कक्षा-9, पृ. 35-37, पाठ का नाम- रीढ़ की हड्डी, लेखक-जगदीश चंद्र माथुर
- प्रसाद : खूबसूरती पर टैक्स ! (रामस्वरूप और शंकर हंस पड़ते हैं) मज़ाक नही साहब, यह ऐसा टैक्स है जनाब कि देने वाले छू भी न करेंगे । बस शर्त यह है कि हर एक औरत पर यह छोड़ दिया जाए कि वह अपनी खूबसूरती के 'स्टैंडर्ड' के माफिक अपने ऊपर टैक्स तय कर ले । फिर देखिए, सरकार की कैसी आमदनी बढ़ती है।
- प्रसाद : (बीच में ही) यह बात दूसरी है बाबू रामस्वरूप,मैंने आपसे पहले भी कहा था, लडकी का खूवसूरत होना निहायत ज़रूरी है । कैसे भी हो । चाहे क्रीम पाउडर वगैरह लगाए, चाहे वैसे ही । बात यह है कि हम आप मान भी जाएँ, मगर घर की औरतें तो राजी नहीं होती ।
- गो. प्रसाद : यह पढ़ाई-लिखाई के बारे में! ....जी हां, साफ बात है साहब, हमें ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़की नहीं चाहिए । मेम साहब तो रखनी नहीं, कौन भुगतेगा उनके नखरों को । बस हद से हद मैट्रिक पास होनी चाहिए...
क्यों शंकर ?
- शंकर : जी हाँ, कोई सवाल ही नहीं उठता ।
– रामस्वरूप : नौकरी का तो कोई सवाल ही नहीं उठता ।
पाठ्य पुस्तकों में इस प्रकार की सामग्री पढ़ने से छात्रों में किस प्रकार के दृष्टिकोण का विकास होगा ?
इसलिए समाज का दृष्टिकोण बदलना है तो आज हम जिस दिशा में चल पड़े है उसकी दिशा बदलने के बारे में सोचना होगा। दिशा बदलने से दशा बदलेगी। दिशा बदलने हेतु देश की व्यवस्थाएं विशेष करके शिक्षा को बदलना होगा।
"देश बदलना है तो शिक्षा को बदलना होगा।"
इस हेतु स्वतंत्र भारत में केन्द्र सरकार द्वारा गठित सभी आयोगों ने मूल्यपरक शिक्षा हेतु अनुशंसाए दी, परन्तु देश की शिक्षा में आज तक मूल्यों का समावेश नहीं किया गया। सामाजिक स्तर पर जहां-2 वर्तमान शिक्षा के साथ अतिरिक्त प्रयास के द्वारा मूल्यों या नैतिक शिक्षा देने का प्रयास हुआ वहां उनके अच्छे परिणाम देखने को मिलते है इसी कडी में शिक्षा संस्कति उत्थान न्यास के द्वारा कछ विद्यालयों में व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण की शिक्षा देने हेतु छ: मास के प्रयास के बाद तीन विद्यालयों में कुछ कक्षाओं की बिना शिक्षक परीक्षा ली गई। जिसके अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के प्रयोग देशव्यापी भी किए जा सकते है। आवश्यकता है केन्द्र एवं राज्यों के सरकारों की इच्छा शक्ति की। इस प्रकार के प्रयास मात्र सरकारों के द्वारा भी पूर्णरूप से सफल नहीं हो सकते। सरकारों के साथ-2 समाज, विशेषकर शिक्षा क्षेत्र के लोगों की प्रमुख भूमिका भी अपेक्षित है।