शिक्षक कर्त्तव्य बोध- प्रारूप

देश की शिक्षा का यही लक्ष्य है। शिक्षा का लक्ष्य एवं जीवन के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए।

असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतंगमय ।।

भावार्थ :-    सत्य से असत्य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर ले

                 जाए।

 

देश की शिक्षा का यही लक्ष्य है। शिक्षा का लक्ष्य एवं जीवन के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए। कई महापुरुषों ने विभिन्न शब्दों में यही बात कही है।

 

"मनुष्य में सम्पूर्णता सुप्तरूप से विद्यमान है उसका प्रत्यक्षीकरण ही शिक्षा का लक्ष्य है - स्वामी विवेकानन्द ।"

शिक्षा के इस लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम शिक्षक है।

The teacher is a maker of the men - Jhon Adems मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव- तैत्तिरीय उपनिषद।

वास्तव में शिक्षण, शिक्षक का प्रोफेशन नहीं मिशन है (यह व्यवसाय नहीं जीवन ध्येय है) प्रफुल्लचन्द्र राय के जीवन में उसका साकाररूप देखने को मिलता है। लेकिन वर्तमान में इसमें विपरीत परिस्थिति दिखने को मिलती है। वर्तमान में कैरेक्टर एवं कमिटमेण्ट दोनों की काईसिस है। शिक्षक के चरित्र एवं प्रतिबद्धता से ही छात्रों के व्यक्तित्व का समग्र विकास एवं चरित्र निर्माण सम्भव है। इस हेतु चार प्रकार की प्रतिबद्धता (कमिटमेण्ट) की आवश्यकता महसूस होती है। 

 

1. कमीटमेन्ट टू दी स्टूडेन्ट –(छात्रों के प्रति प्रतिबद्धता)

आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि -हम आचार्य कुल के हैं। जो अपने आचरण से सिखाये वह आचार्य है। यह परम्परा भारत में चलती आयी है। हर काल-युग में उसके उदाहरण देखने को मिलते हैं। वर्तमान में इस सन्दर्भ में कुछ कमी अवश्य दिखाई देती है।

जब हनुमान जी ने उनके अयोग्य शिक्षक का अपमान किया। हनुमान जी की उनके बड़े गुरु के समक्ष शिकायत की गयी तब उनके गुरूजी ने कहा की हनुमान की गलती के लिए मैं आज पूरे दिन उपवास करूंगा। उस दिन हनुमान जी ने भी उपवास करते हुए कठोर परिश्रम भी किया था। इसी प्रकार प्रफुल्लचन्द्र राय, प्रो. यशवंत केलकर मेरे स्वयं के शिक्षक जैसे कई उदाहरण नजर में आ रहे है।

गांव से आने वाले छात्रों में किसी को आवास व्यवस्था की समस्या रहती थी तब वो उन छात्रों को प्रफुल्लचन्द्र राय अपने घर में रखते थे। इसी प्रकार गरीब छात्रों का शुल्क भी स्वयं जमा कर देते थे।

 

प्रो. यशवंत राव केलकर ने लम्बे भाषण नहीं दिये लेकिन अपने आचरण से छात्रों, कार्यकर्ताओं के जीवन में परिवर्तन लाया। एक बार एक छात्र कार्यकर्ता के पास अधिवेशन में जाने के लिए पैसा नहीं था तब एक दिन उनको आवश्यक आर्थिक सहायता दी। जब वह छात्र कमाने लगा तब एक दिन उस युवक ने घर आकर प्रो. यंशवत राव को पैसा वापस दिया। यशवंतराव केलकर ने पैसा अपने हाथ में लेकर पुनः उस युवक की जेब में रखते हुए कहा कि अपने जैसे छात्र की आवश्यकता के लिए इसका उपयोग करना। मैंने जब 11वीं कक्षा में प्रवेश लिया तो कुछ कारणवश शुल्क भरने के अन्तिम दिन मेरे पास शुल्क हेतु पैसा नहीं था तब मेरा शुल्क मेरे शिक्षक ने भर दिया था। उन्होंने पूरे जीवनभर शिक्षक का वेतन समाज के लिये ही उपयोग किया।

स्वीडन में पिछड़ी बस्ती में रहने वाले छात्रों के उत्थान के लिए प्रयास करने वाले एक व्यक्ति ने उन छात्रों के व्यवहार से तंग आकर उनको कहा आप जीवन में कुछ नहीं कर सकते, जैसे हो वैसे ही रहोगे। कुछ वर्षों के बाद उसी व्यक्ति ने अपनी बस्ती में जाकर देखा तो ध्यान में आया कि वे सभी छात्र आज बहुत अच्छे स्थान पर हैं। इस घटना से उनकी इच्छा जागृत हुई और उन सभी छात्रों से मिलकर सर्वे किया और सबसे पूछा आपकी सफलता का कारण क्या है? सभी के उत्तर में, उनके एक ही शिक्षक का नाम था। उस व्यक्ति की जिज्ञासा और बढी वह उस शिक्षक से मिलने गया और पूछा आपने ऐसा क्या किया? जिससे यह सब छात्र इतने आगे बढ़ पाये। शिक्षक का उत्तर था मैंने कछ नहीं किया। हां कछ किया है तो प्रेम दिया। इस अनुभव से ध्यान में आता है कि सम्मान मांगने से नहीं मिलता, अर्जित किया जाता है।

परम पूजनीय गुरूजी (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सर संघचालक) काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक थे। उस दिनों परीक्षा के समय एक छात्र ने कहा मेरी तैयारी नहीं हुई है इसलिए परीक्षा नहीं दूंगा। तब श्री गुरूजी ने कहा मै तुम्हारी तैयारी कराऊंगा। वह छात्र कला संकाय में पढ़ाई करता था। श्री गुरूजी विज्ञान के प्राध्यापक थे लेकिन परम पूजनीय गुरूजी कला के विषयों का स्वयं अध्ययन करके उस छात्र को पढ़ाते थे। वह छात्र परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए।

वर्तमान की भयानक शिक्षा व्यवस्था में भी यदि शिक्षक चाहे तो विषयों को रोचक बनाया जा सकता है, छात्रों में मूल्यबोध उत्पन्न किया जा सकता है, छात्रों के जीवन को दिशा दी जा सकती है। सूरत में महाविद्यालय के प्राध्यापकों की संगोष्ठी में एक महिला प्राध्यापिका ने कहा कि मैं पिछले 20 वर्षों से अपनी कक्षा में शुरू में गायत्री मन्त्र कराती हूँ। आज तक किसी छात्र ने विरोध नहीं किया। मैंने भी शुरू में तीन बार उंकार करके एक मन्त्र का सामूहिक उच्चारण कराया। कुछ विद्यालयों में कक्षा की शुरूआत में इस प्रकार के प्रयास से वहां के छात्रों के परिणाम में सकारात्मक परिवर्तन आया, अनुशासन अच्छा हो गया। इसी प्रकार विभिन्न विषयों को पढ़ाते समय उसमें व्यवहारिकता का समावेश किया जा सकता है। उदाहरण के लिए हम बैकिंग पढ़ाते हैं तब छात्रों को सप्ताह में एक बार उनको बैठक में ले जाना, बैंक मैनेजर को निमन्त्रित करके उनके साथ विचारों का आदान-प्रदान कराना। हमारे यहां तो ३२ प्रकार की पढ़ाने की पद्धति थी। आज शायद सभी पद्धति से हम परिचित नहीं है लेकिन अधिक से अधिक संवाद के माध्यम से पढ़ाने का तो प्रयास किया जा सकता है।

 

2. कमिटमेन्ट टू दी सब्जेक्ट ( विषय के प्रति प्रतिबद्धता ) साधारण रूप से पांच वर्ष में ज्ञान दुगुना होता है। इसमें अपनी सहभागिता रहे एवं योगदान रहे। युनेस्को द्वारा प्रकाशित ट्रेजर वीथीन पुस्तक में कहा है लर्निग टू लर्न, लर्निग टू डू, लर्निग टू लीव टूगेदर एवं लर्निग टूबी । किसी भी व्यक्ति ने मान लिया कि मैं तो मात्र सिखाने वाला हूँ तब उनका विकास वहाँ रुक जाता है। इस हेतु नियमित अभ्यास अनिवार्य है। सचिन तेंदुलकर ने अगर सोचा होता की मुझे नियमित अभ्यास की आवश्यकता नहीं है, तो शायद वह विश्व का महान बल्लेबाज नहीं होता।

 

3. कमिटमेन्ट टू दी सोसायटी (समाज के प्रतिबद्धता)- भारत का एक प्रतिनिधि मण्डल अमेरिका के प्रवास में गया था। प्रवास की पूर्णता के समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी से भेंट करते हुए प्रश्न पूछा कि अमेरिका इतना आगे कैसे बढ़ा। केनेडी का उत्तर था, हमारा हर शिक्षक पढ़ाते समय सोचता है कि मेरे सामने बैठ हुए छात्र भविष्य में अमेरिका के राष्ट्रपति बनने वाले हैं। कोठारी आयोग के रिपोर्ट में भी कहा है कि हमारा विश्वविद्यालय समाज का एक टापू नहीं होना चाहिए बल्कि सामाजिक चेतना का केन्द्र होना चाहिए। हमारे विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय छात्रों में सामाजिक जागरूकता-चेतना- संवेदना जगाने एवं उसमें राष्ट्रभक्ति के संस्कार देने के केन्द्र होने चाहिए। 

 

4.कमिटमेण्ट टू सेल्फ (स्वयं के प्रति प्रतिबद्धता) - उपनिषद् में कहा है -अपने को पहचानो (आत्मानं विद्धि), महात्मा बुद्ध ने कहा है-आत्मदीपो भव, भगवान महावीर ने कहा है- स्व में बस परसे खस। इस सन्दर्भ की एक अच्छी कहानी है। एक संत का शिष्य मासांहारी था उन्होंने कहा कि आपकी वाणी सुनता हूँ तब तो विचार करता हूँ कि आगे मांस नहीं ग्रहण करूगा, लेकिन वह संकल्प व्यवहार में नहीं आता तब क्या किया जाय? महात्मा जी ने कहा कि एक संकल्प कर सकते हो। कि मांस खाना लेकिन कोई देख न ले। मांसाहारी व्यक्ति ने कहा यह तो हो सकता है। घर जाने के बाद मांस खाने की इच्छा हुई तब वह गांव के बाहर गया जहां कोई देख न सके। जैसे ही खाने का प्रयास किया तो ध्यान में आया की यहां कुछ पशु उसे देख रहे हैं। वह एक पहाड़ के ऊपर गया फिर खाना चाहा तब ध्यान में आया की यहाँ पक्षी देखे रहे है। फिर एक गुफा में जाकर खाने का प्रयास किया तो वहां कोई पशु, पक्षी नहीं था। और भी कोई देख नहीं रहा था तब उन्होंने खाने का प्रयास किया तब उसके अन्दर से आवाज आई मैं देख रहा हूँ, और उस व्यक्ति ने मांस खाना छोड़ दिया। क्या? हम अपने आप की ओर देखते है क्या? स्वयं का जीवन इस प्रकार का है क्या? गांधी जी ने जीवन के लिए एक नारा दिया – सादा जीवन उच्च विचार। इस प्रकार के जीवन जीने वाले चाणक्य जैसे आचार्यों ने चन्द्रगुप्त का निर्माण किया।

शिक्षा देना यह व्यवसाय नहीं ध्येर्य है। इसलिए है कि शिक्षा देना, यह मनुष्य के निर्माण का कार्य है। इस कार्य को चाणक्य, प्रफुलचन्द्र राय, डा. राधाकृष्ण, प्रो. यशवन्तराव केलकर जैसे अनेक आचार्यों ने पूजाभाव से किया वहीं हमारा आदर्श है इन आचार्यों के रास्ते पर चलने की ईश्वर हम सबको शक्ति एवं भक्ति दे ऐसी विनम्र प्रार्थना।

 

 

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