आंदोलन से न्यास तक

 

विकास यात्रा के प्रमुख पड़ाव

यह आम धारणा है कि किसी संगठन के होने अथवा न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता। परन्तु सर्वसमाज को प्रभावित करने वाले कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर जब हम गहरायी से चिंतन-मंथन करते हैं तो ध्यान में आता है कि यदि अमुक संगठन नहीं होता तो देश और समाज की स्थिति कितनी भयावह होती! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । यदि संघ नहीं होता तो क्या देश में सकारात्मक परिवर्तन का जो वातावरण आज बना है वह बन पाता? यही बात जब हम 'शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति' और 'शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास' के संदर्भ में सोचते हैं तो ध्यान में आता है कि यदि ये संगठन नहीं होते तो संभवत: हमारे विद्यार्थियों को आज भी विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में यही पढ़ाया जाता रहता कि हमारे स्वतंत्रता सेनानी और महापुरुष 'आतंकवादी, लुटेरे और अंग्रेजों के एजेंट' थे। यही नहीं, स्कूली विद्यार्थियों को यौन शिक्षा के नाम पर वह अश्लीलता पढ़ायी जा रही होती, जिसे न शिक्षक पढ़ सकता और पढ़ा सकता। यदि कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की वर्ष 2007 में रची गयी वह साजिश सफल हो गयी होती तो भारत की युवा पीढ़ी चारित्रिक दृष्टि से आज उसी गर्त में पहुंच चुकी होती जहां अधिकतर पश्चिमी देश फंसे हुए हैं। पश्चिमी देशों की तरह भारत भी कंडोम का विशाल बाजार बन गया होता। एड्स की रोकथाम के नाम पर रची गयी वह ऐसी अन्तर्राष्ट्रीय साजिश थी, जिसमें हमारे तत्कालीन नीति- निर्माताओं और राजनेताओं का एक बहुत बड़ा वर्ग शामिल था। परन्तु शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के प्रणेता एवं प्रख्यात शिक्षाविद श्री दीनानाथ बत्रा के नेतृत्व में ऐसी तमाम साजिशों को विफल करने के लिए सड़क से लेकर संसद और जिला न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक संघर्ष किया गया। शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति और शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की विकास यात्रा में ऐसे अनेक पड़ाव हैं जिन पर आज सम्पूर्ण देश गर्व कर सकता है । समाज के सहयोग से न केवल देशविरोधी ताकतों द्वारा रची गयी साजिशों को विफल किया गया, बल्कि चरित्र निर्माण एवं व्यक्तिव के समग्र विकास पर केन्द्रित वैकल्पिक शिक्षा का व्यावहारिक विकल्प भी प्रस्तुत किया गया।

पाठ्यपुस्तकों में मौजूद विकृतियों के विरुद्ध संघर्ष

सबसे पहले बात करते हैं पाठ्यपुस्तकों में मौजूद विकृतियों की । विद्यार्थी जो कुछ स्कूल-कॉलेजों में पढ़ते हैं वही ज्ञान उनके व्यक्तित्व को गढ़ता है। परन्तु एक गंभीर साजिश के तहत हमारे स्वत्व को समाप्त करने के लिए विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक ऐसी शिक्षा प्रदान की जा रही थी जो युवा पीढ़ी में अपनी ही संस्कृति, इतिहास और महापुरुषों के प्रति हीन भावना और नफरत पैदा कर दे। स्वतंत्रता आन्दोलन में अपने प्राण न्यौछावर करने वाले हमारे स्वतंत्रता सेनानियों और महापुरुषों के बारे में सरकारी एजेंसियों द्वारा प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में भी झूठी, मनगढंत और तथ्यहीन जानकारियां देकर युवा पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया जा रहा था। कुछ उदाहरण देखिए:

- लाल, बाल, पाल, सावरकर और अरविन्द घोष आतंकवादी थे। (सामाजिक विज्ञान भाग-1, कक्षा 8, पृष्ठ-189, लेखक-अर्जुनदेव)

- शहीद भगत सिंह आतंकवादी थे। ( भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, लेखक-विपिन चन्द, दिल्ली विश्वविद्यालय) *

- स्वामी दयानन्द सरस्वती ईसाइयों के भाड़े का व्यक्ति था। (आधुनिक भारत, कक्षा 12, पृष्ठ-183, लेखक-विपिन चन्द्र)

- गुरू गोविन्द सिंह मुगलों के दरबार में मनसब थे। (आधुनिक भारत, कक्षा 12, पृष्ठ-2, लेखक-विपिन चन्द्र)

- रावण और लक्ष्मण ने सीता के साथ व्यभिचार किया। (दिल्ली विश्वविद्यालय, बी.ए. ऑनर्स द्वितीय वर्ष इतिहास की पुस्तक 'कल्चर इन एन्सिएंट इंडिया')

- स्वामी विवेकानन्द ने लोगों को गोमांस भक्षण का सुझाव दिया। (वेण्डी डोनिगर की पुस्तक 'द हिन्दू- एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री', पृष्ठ-639) ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के मुक्त अध्ययन विद्यालय की बी.ए. द्वितीय वर्ष प्रश्न पत्र - 2 की पुस्तक में लिखा गया कि "गांधीजी के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का आधार वैज्ञानिक नहीं था। रामराज्य के रूप में स्वराज्य की उनकी व्याख्या मुसलमानों को उत्साहित नहीं कर सकी।" दिल्ली विश्वविद्यालय की ही बी ए, पार्ट-1 समाजशास्त्र की पुस्तक में कहा गया: "ऋग्वेद में कहा गया है कि स्त्रियों का स्थान शूद्रों तथा कुत्तों के समान है । स्त्रियों को वेद पढ़ने-पढ़ाने का कोई भी अधिकार नहीं था और न ही वह धार्मिक क्रिया कर्म कर सकती थीं। अथर्ववेद में महिलाओं को केवल संतान उत्पत्ति का साधन माना जाता था। लड़कियां उनके लिए अभिशाप थीं ।"

 

हिन्दू-देवी देवताओं का अपमान

इसके अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय की बी.ए. (ऑनर्स) द्वितीय वर्ष की पुस्तक "कल्चर इन एंसिएंट इंडिया" में इतनी शर्मनाक बातें पढ़ाई जा रहीं थी जो तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की पराकाष्ठा थीं। पुस्तक में अधि कतर लेख ए.के. रामानुजम के लिखे हुए थे, जिनका संकलन तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की बेटी डा. उपिन्द्रा सिंह ने किया था । दिल्ली विश्वविद्यालय में 'थ्री हंड्रेड रामायण' नामक पुस्तक में एक निबंध छात्रों को पढ़ाया जा रहा था। इसके '300 रामायण, पांच उदाहरण और तीन विचार बिन्दू' नामक अध्याय में पढ़ाया जा रहा था कि "रावण के गर्भधारण करने के पश्चात् रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ हनुमान एक छुटभैया बंदर था। वह एक कामुक व्यक्ति था जो लंका के शयनकक्षों में झांकता रहता था। रावण का वध राम से नहीं लक्ष्मण से हुआ। रावण और लक्ष्मण ने सीता के साथ व्यभिचार किया ।" इसके अलावा पुस्तक में इन्द्र द्वारा अहिल्या के शीलभंग का भी बहुत ही कौमिक वर्णन किया गया | फरवरी 1987 में ए.के. रामानुजम द्वारा लिखित इस लेख को एक अमेरिकी महिला पौला रिचमैन द्वारा संपादित पुस्तक "मैनी रामायणाज़ः द डाइवर्सिटी ऑफ ए नैरेटिव ट्रेडिशन इन साउथ एशिया" में सम्मिलित किया गया। 'मैनी रामायणाज़' का प्रथम संस्करण ,, 1991 में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित किया गया। इसका प्रथम भारतीय संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने 1992 में प्रकाशित किया। 2005 में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग, जिस पर वामपंथियों का एकछत्र वर्चस्व था, ने इस अध्याय को छात्रों के लिए अनिवार्य पाठ्य सामग्री में सम्मिलित कर विवाद को जन्म दिया | वर्ष 2008 में इसके विरुद्ध छात्रों एवं शिक्षाविदों द्वारा प्रचंड आन्दोलन किया गया। यह मसला संसद में गूंजते हुए सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। न्यायालय ने दिल्ली विश्वविद्यालय को एक निष्पक्ष विशेषज्ञ समिति बनाकर उस लेख की शैक्षिक उपयुक्तता का आकलन कराने का निर्देश दिया। विश्वविद्यालय ने विशेषज्ञ समिति गठित की। समिति की रिपोर्ट के आध र पर विश्वविद्यालय की अकादमिक काउंसिल ने बहुमत से विवादास्पद अध्याय को हटाने का निर्णय लिया। इसके विरुद्ध शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति ने पहले दिल्ली विश्वविद्यालय में संघर्ष किया। इसी बीच 5 सितम्बर, 2008 को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति को पत्र लिखकर पुस्तक के प्रकाशन पर खेद व्यक्त किया और इससे हिन्दू समाज की भावनाएं आहत होने पर माफी मांगी। साथ ही यह भी कहा कि वे पुस्तक को भविष्य में न बेचेंगे और न ही प्रकाशन करेंगे। इसके बाद 12 सितम्बर, 2008 को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष को पत्र लिखकर इस बात पर आपत्ति जतायी कि विवादास्पद पुस्तक में जो अध्याय शामिल किया गया है उसे शामिल करने से पहले प्रकाशक से अनुमति नहीं गयी। इससे पूर्व इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ द्वारा 'भारत में धार्मिक चिंतन और आस्था' विषय पर जो सामग्री विद्यार्थियों को पढ़ाई जा रही थी उसमें हिन्दू धर्म और उसके देवी - देवताओं का घोर अपमान किया गया। इस अध्ययन कार्यक्रम के संयोजक थे प्रो. ए.आर. खान और प्रो. स्वराज बसु। उसमें कहा गया कि "शिवजी ओघड तपस्वी थे, जिनके पर राख मली होती थी और शमशान उसका उपासना स्थल था, वो नग्न रहने वाला साधू पुरुष था और तपस्वियों और देवताओं की स्त्रियों का शीलभंग करता था ।" इसमें आगे दुर्गा मां को अपमानित करते हुए लिखा गया कि "वह सदा शराब के नशे में धुत रहती थी और उसकी आंखें सदा रक्तरंजित थी। वह तामसी वृत्तियों की एक देवी थी।" इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) प्रशासन के विरुद्ध इस पर रोष प्रकट किया गया। अन्तत: सरकार को पुस्तक से इन अंशों को निकालना पड़ा। यही नहीं, तत्कालीन राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने भी इस संबंध में विस्तृत जानकारी मांगी। इसके अलावा देशभर में अनेक स्थानों पर आन्दोलन हुए संसद में इस पर गहन चर्चा हुई और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री ने संसद में ही इस विकृत सामग्री को हटाने की घोषणा की।

असंवैधानिक शब्दों की भरमार

इसी प्रकार एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित हिन्दी भाषा की पुस्तकों में 'हरामजादा, हरामखोर, बदमाश, भंगी, चमार जैसे अनेक अशिष्ट और असंवैधानिक शब्द पढ़ाये जा रहे थे। एन.सी.ई. आर.टी. कक्षा 11 की हिन्दी पुस्तक 'अन्तराल' में पृष्ठ 65 पर लिखा था: "उल्लु कहीं का, कमबख्त लुच्चे लफंगे, बदमाश, क्या मैं एक साले को भी नहीं पकड़ पाउंगा?" इतिहास की पुस्तक में लिखा था कि "महावीर 12 वर्ष तक जंगलों में भटकते रहे। कपड़े नहीं बदले, स्नान नहीं किया। आगे चलकर नंगे रहने लगे।" इसके विरुद्ध अलवर के न्यायालय में वाद दायर किया गया और न्यायालय के आदेश से ये पंक्तियां पुस्तक से निकाली गयीं| अन्य पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा से पता चला कि पुस्तकों में उर्दू और फारसी के शब्दों की भरमार थी। यही नहीं, पुस्तकों में मीरा तथा अक्क महादेवी का अपमान किया गया और मकबूल फिदा हुसैन जैसे कामुक पेंटर तथा नक्सलवादी कवि पाश का महिमामंडन किया गया। इसके अलावा हिन्दू समाज और उनके आराध्य देवताओं एवं महापुरुषों का अपमान करने के साथ एनसीईआरटी की कक्षा आठ की सामाजिक विज्ञान की पुस्तक में मुसलमानों की बदहाली का जिक करते हुए यह समझाने का प्रयास किया गया कि भारत में मुसलमानों को हाशिए पर धकेला गया है । इस अध्याय में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट का उल्लेख था। एनसीईआरटी और दिल्ली विश्वविद्यालय के माध्यम से प्रकाशित पुस्तकों में यह सब पढ़ाया जाना शर्मनाक था। विपिन चन्द्रा रोमिला थापर, अर्जुनदेव जैसे विकृत मानसिकता वाले लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकों के माध्यम से हमारी युवा पीढ़ी में पराजित मानसिकता का भाव बनाये रखने के लिए यह सब किया गया | आश्चर्य की बात है कि ऐसे विकृत प्रयासों को तत्कालीन सरकारों का निरंतर सहयोग एवं समर्थन मिलता रहा।

विजय ही विजय

2 जुलाई, 2004 को नई दिल्ली में अपनी स्थापना से ही शिक्षा बचाओ आन्दोलन ने शिक्षा में मौजूद ऐसी तमाम विकृतियों के विरुद्ध सड़क से लेकर संसद और न्यायालय तक संघर्ष किया जिला न्यायालय से लेकर उच्चतम न्यायालय तक 11 मुकदमों में जीत हासिल की। एक भी मुकदमा नहीं हारे। परिणामस्वरूप ऐसे 75 आपत्तिजनक अंशों को पाठ्य पुस्तकों से हटाया गया। एनसीईआरटी की कक्षा 6 से 12 तक की पुस्तकों में आपत्तिजनक अंशों को हटवाने के लिए देशभर में 200 गोष्ठियां हुई और दिल्ली के जंतर-मंतर तथा अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुए। स्वाभाविक है कि यह सब कार्य बिना समाज के सहयोग के नहीं हो सकता था। अनेक सामाजिक संगठनों तथा शिक्षाविदों का इस कार्य में सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ।

पेंग्विन द्वारा माफी

एक मामला शिकागो विश्वविद्यालय में सहायक प्राफेसर वेंडी डोनिगर द्वारा लिखित पुस्तक 'द हिन्दूजः एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री' था। इस पुस्तक को अन्तराष्ट्रीय प्रकाशक पेंग्विन ने प्रकाशित किया था । उस पुस्तक में वेंडी डोनेगर लिखती हैं कि हिन्दू देवी-देवता कामुकता के शिकार हैं, शिवलिंग का वर्णन व्यावहारिक रूप से कामुकतापूर्ण हैं, चंडिका ने शम्भू को यौनोन्माद में मार डाला ( पृष्ठ 416), यमी अपने भाई यम के साथ यौनाचार का असफल प्रयास करती है (पृष्ठ 123-124), सीता लक्ष्मण के बीच कामुकता के संबंध थे (पृष्ठ 14), सूर्य ने कुंती से ब्लात्कार किया (पृष्ठ 295 ), स्वामी विवेकानन्द ने अपने शिकागो भाषण के दौरान श्रोताओं को गोमांस खाने का आग्रह किया ( पृष्ठ 63), महात्मा गांधी को युवा लड़कियों के साथ सोने की आदत थी (पृष्ठ 625), मंगल पांडे शराब, अफीम, भांग के नशे में डूबे रहते थे (पृष्ठ 587), झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज भक्त थी ( पृष्ठ 586), आदि। ऐसे 21 से अधिक आपत्तिजनक अंश थे। पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर भी भगवान श्रीकृष्ण को नग्न स्त्रियों ने घिरे हुए दिखाया गया था शिक्षा बचाओ आन्दोलन ने इन तथ्यहीन बातों पर घोर आपत्ति जतायी और वर्ष 2010 में दिल्ली के हौजखास थाने में वेंडी डोनेगर, पेंग्विन ग्रुप (यूएसए) तथा पेंग्विन बुक्स इंडिया प्रा. लि. के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करायी । साथ ही इसके विरुद्ध दिल्ली के साकेत न्यायालय में वाद भी दायर किया । सितम्बर 2012 में साकेत न्यायालय के माध्यम से वेंडी डोनिगर और पेंग्विन समूह से संपर्क साधने का प्रयास किया गया। यहां तक कि वेंडी डोनिगर के आवास से समन भी लेने से इनकार कर दिया गया। अंतत: 10 फरवरी, 2014 को पेंग्विन बुक्स इंडिया प्रा. लि. और शिक्षा बचाओ आन्दोलन के बीच समझौता हुआ, जिसके अनुसार पेंग्विन बुक्स तत्काल प्रभाव से वेंडी डोनेगर की विवादास्पद पुस्तक को वापस लेगा और वह अपने स्वयं के खर्च पर सम्पूर्ण पुस्तकें देशभर से वापस लेकर उन्हें नष्ट करेगा । अब ये पुस्तक न आगे कभी छापी जाएगी और न ही कभी बेची जाएगी । इस घटना के बाद मीडिया के उस वर्ग और उन कथित बुद्धिजीवियों ने शोर मचाना प्रारंभ कर दिया जो सलमान रश्दी की पुस्तक 'द शैतानिक वर्सेस' पर प्रतिबंध लगाने की मांग करते थे या फिर तस्लीमा नसरीन पर हुए हमलों के समय मौन थे।

यौन शिक्षा के विरुद्ध आंदोलन

शिक्षा बचाओ आन्दोलन की विकास यात्रा में दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव था देशभर के स्कूलों में लागू की जाने वाली यौन शिक्षा के पाठ्यकम पर रोक लगवाना। कांग्रेस सरकार द्वारा वर्ष 2004 के बाद यह शिक्षा खासतौर से 6 से 12 कक्षा तक के बच्चों को प्रदान की जाने वाली थी। केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के निर्देश पर अपने स्कूलों के अध्यापक- अध्यापिकाओं को इस संबंध में प्रशिक्षण प्रदान करना भी प्रारंभ कर दिया था। प्रशिक्षण के दौरान ही शिक्षकों में इस पाठ्यक्रम को लेकर ऐसी बेचैनी देखी गयी जिसे वे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पा रहे थे। उन्हें ऐसा पाठ्यकम पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था जिसे वे स्वयं भी पढ़ना नहीं चाहते थे। स्कूली बच्चों की पाठ्य पुस्तकें घर पर अभिभावक भी पढ़ते हैं। परन्तु वह ऐसी पाठ्य पुस्तकें थीं जिसे अभिभावक कभी अपने बच्चों को पढ़ने के लिए नहीं देना चाहेंगे। प्रश्न यह भी था कि यौन शिक्षा के बारे में पुस्तकों में दी गयी जानकारी प्राप्त करने के बाद बच्चे अपने शिक्षकों, शिक्षिकाओं और अभिभावकों से ऐसे प्रश्न करते जिनका जवाब कोई नहीं दे पाता । जिन लोगों ने यौन शिक्षा के लिए तैयार किया गया वह पाठ्यकम देखा है वे जानते हैं कि वह नग्नता और अश्लीलता का कौमिक प्रदर्शन था। हमारे देश में अश्लील साहित्य का प्रकाशन, वितरण और पठन-पाठन गैरकानूनी है। परन्तु वह ऐसी अश्लील पाठ्यपुस्तक थी जिसे सरकार ने प्रकाशित किया, वही उसका वितरण कर रही थी और वही बच्चों और शिक्षकों को उसे पढ़ने के लिए कह रही थी। उस पुस्तक में एचआईवी और एडस के संबंध में जागरूकता के नाम पर महिला और पुरूषों के अंगों का बच्चों के सामने नग्न प्रदर्शन अश्लीलता की पराकाष्ठा थी। यौन शिक्षा भारतीय युवा पीढ़ी को व्यस्क बनने से पहले ही चारित्रिक दृष्टि से बर्बाद कर देने की वैश्विक साजिश का हिस्सा थी। जो भारत विचारवान, चरित्रवान और अनुभवी व्यक्तियों के लिए जाना जाता है उसकी हालत उन पश्चिमी देशों जैसी ही होती जहां अल्पायू में ही बालिकाएं गर्भवती हो जाती हैं और गर्भपात केन्द्र कुकुरमुत्तों की भांति खुले हुए हैं संतों और पूर्व न्यायाधीशों द्वारा विरोध
शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने इस षड़यंत्र के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ किया। इस संघर्ष में भी अनेक संगठनों, शिक्षाविदों, संतों, महात्माओं का सहयोग प्राप्त हुआ। जैन मुनि पूज्य श्री विजयरत्नसुंदर सुरीश्वर महाराज तथा बाबा रामदेव जैसे बड़े संत व उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री आर.सी. लाहोटी जैसे विद्वान खुलकर इसके विरोध में खड़े हुए। सड़क से लेकर संसद तक देशव्यापी आन्दोलन हुआ। राज्यसभा और लोकसभा में संसद सदस्यों ने इस पर गंभीर रोष प्रकट किया और कहा कि अल्पायू में इस प्रकार की शिक्षा विद्यार्थियों को चरित्रहीनता की ओर धकेलेगी। संसद सदस्यों की मांग पर राज्य सभा में दस सदस्यों की एक उपसमिति गठित की गयी, जिसने देशभर से इस विषय पर विचार आमंत्रित किये। देशभर से यौन शिक्षा के विरुद्ध 40 ,000 से अधिक लेख तथा 4.15 लाख हस्ताक्षर प्रतिवेदन के रूप में उपसमिति के पास पहुंचे अन्ततः उपसमिति ने स्कूलों में यौन शिक्षा प्रदान करने की बजाए चरित्र निर्माण शिक्षा प्रदान करने की सिफारिश की। सरकारी स्तर पर रची गयी साजिश कितनी गहरी थी उसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यौन शिक्षा का परोक्ष रूप से प्रचार - प्रसार करने के लिए एक 'रेड रिबन एक्सप्रेस' रेल चलायी गयी देश में सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने के स्पष्ट उद्देश्य से प्रारंभ यह रेल राजीव गांधी फाउंडेशन एवं यूनिसेफ के तत्वावधान में भारत सरकार के युवा एवं खेल मंत्रालय तथा रेल मंत्रालय के सहयोग से चलायी गयी। इसका उद्देश्य 12वीं कक्षा तक के बच्चों को कंडोम के बारे में जानकारी देना था यह रेल 22 राज्यों में होते हुए 50,000 गांवों तक पहुंचने वाली थी।

सबसे बड़ा शैक्षिक जागरण अभियान

शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने इसके विरुद्ध प्रचंड आन्दोलन किया। एक विषय पर यह देश का सबसे बड़ा शैक्षिक जागरण अभियान था। 11 राज्य सरकारों ने यौन शिक्षा प्रदान करने से इनकार कर दिया। नेशनल एडस कंट्रोल आर्गनाइजेशन ने स्वयं यौन शिक्षा के पाठ्यक्रम की समीक्षा हेतु एक समिति का गठन किया। इसी बीच शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति ने यौन शिक्षा के स्थान पर चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व निर्माण पर केन्द्रित वैकल्पिक पाठ्यक्रम केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को दिया राज्यसभा की उपसमिति ने भी यौन शिक्षा के स्थान पर चरित्र निर्माण शिक्षा प्रदान करने की सिफारिश की। देशव्यापी आन्दोलन के परिणामस्वरूप कांग्रेस नेतृत्व वाली तत्कालीन केन्द्र सरकार को इससे हाथ पीछे खींचने पड़े और देश एक बहुत बड़े संकट से बच सका । प्रधानमंत्री कार्यालय ने एनसीईआरटी को स्कूलों में नैतिक मूल्यों की शिक्षा को बढ़ावा देने वाली शिक्षा प्रदान करने और महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता एवं आदर के भाव को बढ़ावा देने के लिए कहा। परन्तु हद तो तब हो गयी जब ऐसा न कर पाने के लिए धन के अभाव की बात कही गयी। यानि यौन शिक्षा के माध्यम से समाज में विकृति प्रदान करने के लिए भरपूर पैसा था और नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए पैसा नहीं था । यह घोर शर्मनाक स्थिति थी।
शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति द्वारा पाठ्यपुस्तकों में मौजूद विसंगतियों एवं विकृतियों को विरुद्ध जो संघर्ष वर्ष 2004 में प्रारंभ हुआ था वह वर्ष 2021 में भी जारी है। माननीय उच्चतम न्यायालय के तमाम निर्देशों के बावजूद एन.सी.आर.टी. द्वारा प्रकाशित पाठ्यपुस्तकों में आज भी विसंगतियां व्याप्त हैं। ऐसी ही कुछ विसंगतियों और विकृतियों की ओर मानव संसाधन विकास संबंधी संसदीय समिति ध्यान आकृष्ट करने के लिए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने दिनांक 14 जनवरी, 2021 को समिति के अध्यक्ष डा. विनय सहस्रबुद्धे को एक पत्र लिखा । उस पत्र की प्रति उसी दिन नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् ( एन.सी.ई. आर.टी.) के निदेशक प्रो. श्रीधर श्रीवास्तव को भी भेजी गयी । उस पत्र का मूल पाठ इस पुस्तक में समाहित है।
यह आन्दोलन सिर्फ पाठ्यक्रमों में छोटी-मोटी त्रुटियों को सुधार कराना मात्र नहीं है। बल्कि भारत की शिक्षा को विकृत करने के राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चलाए जा रहे प्रयासों को बेनकाब करके विफल करने का सफल प्रयास है। इस आन्दोलन के परिणामस्वरूप स्वतंत्र भारत में शैक्षिक पाठ्यक्रम सार्वजनिक चर्चा का विषय बना। स्वतंत्र भारत में शिक्षा क्षेत्र के सफलतम आन्दोलनों से एक है ये आन्दोलन जिसका परिणाम देश के शिक्षा जगत में लम्बे समय तक दिखायी देगा ।

शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास

शिक्षा का आधारभूत लक्ष्य बालक का चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। यह बात हमारे सभी महापुरुषों तथा शिक्षा पर बने आयोगों व समितियों ने देश, काल, परिस्थितियों के अनुरूप अपने- अपने शब्दों में बार-बार कही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरूजी कहा करते थे कि "शिक्षा मूलत: ज्ञान के प्रसार का एक माध्यम है, चिंतन तथा परिप्रेक्ष्य के प्रसार का तरीका है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जीवन मूल्यों को पहुंचाना तथा भावी पीढ़ी को आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करना है । "इसलिए शिक्षा बचाओ ,, आन्दोलन समिति ने पाठ्यपुस्तकों में मौजूद विकृतियों को हटवाने के लिए देशव्यापी संघर्ष करने के साथ-साथ शिक्षा व्यवस्था में बदलाव हेतु वैकल्पिक पाठ्यक्रम का मसौदा ही तैयार नहीं किया, बल्कि उसे कई विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में लागू भी कराया। इस पूरे बदलाव को एक दिशा देने का काम शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के माध्यम से हो रहा है। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का गठन 24 मई , 2007 को किया गया। न्यास का ध्येय वाक्य है कि "देश को बदलना है तो शिक्षा को बदलना होगा इसे आधार मानकर शिक्षा में नये विकल्प हेतु कार्य किया जा रहा है। साथ ही न्यास का यह भी आग्रह है कि हम" समस्या ही नहीं समाधान की भी बात करें। इस सकारात्मक दृष्टि के साथ संपूर्ण देश में न्यास का कार्य गति पकड़ रहा है। न्यास के माध्यम से इस समय 14 प्रकार की गतिविधियां संचालित हैं।